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ॐ प्रायश्चित्त : आत्म-शुद्धि का सर्वोत्तम उपाय ॐ ३२५ ॐ
दीनता-हीनता, निराशा या निरुत्साहता का भाव लाकर चिन्ता या शोक में निमग्न होना या आर्तध्यान करना नहीं है। वस्तुतः यहाँ पूर्वोक्त सम्यक् प्रकार से आत्म-निन्दा और पश्चात्ताप दोनों में कार्य-कारणभाव सम्बन्ध है। आत्म-निन्दा कारण है, पश्चात्ताप कार्य है। इसी तथ्य को धोतित करते हुए भगवान महावीर ने कहा-“निन्दना (आत्म-निन्दा) से पश्चात्ताप होता है। पश्चात्ताप से (उक्त दोषोंकषायों या पापकर्मों से) विरक्त होता हुआ साधक करणगुण श्रेणी (अर्थात् आत्मा के परिणामों की विशुद्धिकर्वी क्षपक श्रेणी) को प्राप्त होता है। क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ अनगार मोहनीय कर्म को समूल नष्ट कर देता है।" 'समयसार वृत्ति' में आत्म-साक्षी से दोषों को प्रकट करने को निन्दा कहा है। किन्तु निन्दना का प्रयोग आत्म-साक्षी से आलोचना करने की तरह गुरु या महान आदि की सुसाक्षी से आलोचना करने में भी होता है। इससे क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ साधक प्रति समय तीव्र गति से असंख्यात-असंख्यातगुणी निर्जरा करता है और मोहनीय कर्म को निर्वीर्य बनाकर केवलज्ञान प्राप्त कर लेता है। महासती मृगावती ने आत्म-साक्षी से निन्दना (आत्म-निन्दा) समग्र अन्तःकरण से तीव्र पश्चात्तापपूर्वक की थी, जिसके कारण थोड़ी-सी देर में उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हो गया था।
निन्दना के प्रयोग से भविष्य में उक्त पाप से पूर्ण विरक्ति . प्रमादवश या अज्ञानतावश मोहमूढ़ आत्मा अपने से हुए दोष, पाप या दुष्कर्म को जब भयंकर भूल या गलती समझ लेता है, तब या तो वह स्वयं मन ही मन या फिर गुरु समक्ष उसकी शुद्धि के लिए 'आचारांगसूत्र' में उक्त इस संकल्प को दुहराता है-"इयाणिं णो, जमहं पुव्वमकासि पमाएणं।" अर्थात् मैंने प्रमादवश अतीत (पूर्व) में जो कुछ अकरणीय कृत्य किया है, उसे अब नहीं करूँगा।" वस्तुतः अपने पापों-दोषों के प्रति घृणा, विरक्ति और पश्चात्ताप ही वे आधार हैं, जिनके सहारे भविष्य में वैसा पाप-दोष न होने की आशा की जाती है। 'महाभारत' में भी इसी तथ्य का समर्थन मिलता है-"जो मनुष्य पापकर्म करने पर सच्चे अन्तःकरण से पश्चात्ताप करता है, वह उक्त पाप से छूट जाता है तथा फिर कभी ऐसा कर्म नहीं करूँगा ऐसा दृढ़ निश्चय कर लेने पर भविष्य में होने वाले दूसरे पाप से भी वह बच जाता है।” 'शिवपुराण' के अनुसार-पश्चात्ताप ही पापों
१. (क) 'समतायोग' से भाव ग्रहण (ख) पडिक्कमामि, निंदामि, गरिहामि, अप्पाणं वोसिरामि।
-आवश्यकसूत्र (ग) निंदणयाए णं पच्छाणुतावं जणयइ। पच्छाणुतावणं विरज्जमाणे करणगुणसेढिं पडिवज्जइ। करणगुणसेढिं पडिवन्ने य णं अणगारे मोहणिज्जं कम्मं उग्घाएइ।
-उत्तराध्ययनसूत्र
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