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* ३२० कर्मविज्ञान : भाग ७
मन में पश्चात्ताप होता है, साधक वचन से आत्म - निन्दा ( निन्दना) करता है और कोई गुरुतर या भयंकर दोष या अपराध हुआ हो तो गर्हणा (गुरु या समाज के समक्ष जाहिर में प्रकट) करता है। इस प्रकार का स्वयं आलोचना ( आत्म-निरीक्षण) पश्चात्ताप और प्रकटीकरण करना प्रायश्चित्त की एक प्रक्रिया है । वास्तव में, ऐसी आत्मालोचन की प्रक्रिया प्रतिक्रमण के अन्तर्गत आ जाती है। साधक स्वयं मन ही मन या प्रतिक्रमण के पाठों के सहारे कहता है - " पडिक्कमामि (आलोएमि), निंदामि, गरिहामि । " ( अर्थात् मैं प्रतिक्रमण करता हूँ - आलोचना, निन्दना और गर्हणा करता हूँ) । '
प्रतिक्रमण का माहात्म्य, उद्देश्य, स्वरूप और त्रिकालविषयत्व
प्रतिक्रमण स्वयं प्रायश्चित्ततप का प्रवेशद्वार है। प्रतिक्रमण के माध्यम से साधक दिन में या रात्रि में कभी भी, किसी साधना में हुई अपनी भूल या त्रुटि को निष्पक्ष और तटस्थ होकर देखता है, अपने जीवन को जाँचता - परखता है, मन का कोना-कोना छान डालता है। वह अपने अन्तर की गहराई में उतरकर निरीक्षण करता है कि कहीं दोषों का कूड़ा-करकट तो नहीं जमा हो गया है। इस प्रकार वह ज्ञान, दर्शन, चारित्र, व्रत, समिति, गुप्ति, दशविध धर्म, श्रुत-स्वाध्याय आदि किसी भी साधना में कहीं भी हुई ज़रा-सी भी भूल या विराधना को बारीकी से पकड़ता है। यानी पद-पद पर हुई भूलों को याद करके, प्रतिक्रमण द्वारा उन्हें फिर से न करने का निश्चय करता है। प्रतिक्रमण केवल वर्तमानकाल की क्रिया नहीं है, वह त्रैकालिक है। 'भगवतीसूत्र' में काल के भेद से प्रतिक्रमण तीन प्रकार का बताते हुए कहा गया है - " साधक भूतकाल में लगे हुए दोषों का आलोचनारूप प्रतिक्रमण करता है, वर्तमानकाल में लगने वाले दोषों का निरोधरूप संवर करता है - उनसे बचता है और भविष्य में लगने वाले दोषों के प्रत्याख्यान (त्याग) द्वारा उन्हें रोकता है, इस प्रकार प्रतिक्रमण त्रिकालविषयक है।" वस्तुतः 'आवश्यकसूत्र' के अनुसार - प्रतिक्रमण अशुभ योगों से निवृत्त होने = वापस शुभ योग में लौटने के अर्थ में है । पश्चात्ताप ( आत्म-निन्दना) द्वारा अतीतकाल के अशुभ योगों से निवृत्ति अतीत प्रतिक्रमण है, संवर द्वारा वर्तमानकालिक अशुभ योगों से निवृत्ति वर्तमान प्रतिक्रमण है और प्रत्याख्यान द्वारा भविष्यत्-कालिक अशुभ योगों से निवृत्ति भविष्यत् प्रतिक्रमण है। इस प्रकार प्रतिक्रमण क्रिया का उद्देश्य पूर्वकृत दोषों को दूर करना, वर्तमान में वैसे दोषों को जीवन में प्रविष्ट होने से रोकना और भविष्य में फिर वैसे ही दोषों को न करने के लिए सावधान
१. पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि ।
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