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* सकामनिर्जरा का एक प्रबल कारण: सम्यक्तप ३०९
और अंगोपांगों को आत्म - बाह्य जानकर भेदविज्ञान से अभ्यस्त होता तथा “न सा महं नो वि अहं पि तीसे।” (मैं उस सजीव-निर्जीव वस्तु का नहीं हूँ और न वह मेरी है।) ‘दशवैकालिंकसूत्र' के इस भेदविज्ञान मूलक बोधसूत्र को हृदयंगम कर लेता एवं ‘आचारांगसूत्र' के 'एगो अहमंसि, ण मे अत्थि कोइ, णवाऽहमवि कसइ ।" (मैं अकेला हूँ, मेरा कोई नहीं है, न मैं किसी का हूँ।) इस प्रकार का अध्यवसाय परिपक्व हो जाता। इस प्रकार प्रतिसंलीनता तप के अभ्यास से अभ्यस्त हो जाता और शरीर तथा शरीर से सम्बद्ध सजीव-निर्जीव पर-पदार्थों में एवं कषायादि विभावों में उसकी लीनता छूटकर आत्म-संलीनता हो जाती । किन्तु यह सब स्थूलशरीर से अनशनादि षट् बाह्यतपों द्वारा देहासक्ति को ताड़ने, काया को कष्टसहिष्णुता से अभ्यस्त करने तथा बहिरात्मभाव को छोड़ने से ही हो पाता है, साथ ही स्थूलशरीर द्वारा बाह्यतप से कर्मशरीर तप सकता है, क्षीण और निर्जरित हो सकता है। '.
समाधिमरण-संलेखना के लिए भी अनशनादि बाह्यतप का अभ्यास 'आचारांगसूत्र' में स्पष्ट कहा गया है कि जब शरीर अत्यन्त ग्लान हो जाए या किसी दुःसाध्य रोग या पीड़ा से ग्रस्त हो जाए, आवश्यक क्रियाएँ करने में तथा नित्य क्रियाएँ करने में बिलकुल अक्षम हो जाए तो उसे भक्त - प्रत्याख्यान, इंगितमरण या पादपोपगमन, यों समाधिमरण ( यावज्जीव संलेखनापूर्वक अनशन संथारे) के इन तीन प्रकारों में से अपनी योग्यता, क्षमता, शक्ति और मनोबल के अनुसार किसी एक का चयन करके उसकी तैयारी के लिए सर्वप्रथम संलेखना के तीन अंगों का अभ्यास करना आवश्यक है - ( 9 ) आहार को क्रमशः कम करना, (२) कषायों का अल्पीकरण एवं उपशमन, तथा ( ३ ) शरीर को समाधिस्थ, शान्त और स्थिर रखने का अभ्यास । साथ ही समाधिमरण के अभ्यास के लिए अनशन ( यावज्जीव अनशन) तप अत्यावश्यक है; ताकि शास्त्र के निर्देश के अनुसार समाधिमरण-साधक प्रति क्षण विनश्वर शरीर के प्रति ममता - मूर्च्छा का त्याग करके तथा नाना प्रकार के परीषहों और उपसर्गों पर विजय प्राप्त करके सर्वज्ञों द्वारा प्ररूपित शरीर और आत्मा की पृथक्ता के प्रतिपादक भेदविज्ञान पर पूर्ण विश्वास के साथ इस घोर अनशन का शास्त्रीय विधि के अनुसार अनुपालन करे । इस प्रकार के यावज्जीवन अनशन की आराधना भी तभी कर सकता है, जब पहले अनशनादि बाह्यतपों से अभ्यस्त हो ।
१. (क) दशवैकालिकसूत्र, अ. २, गा. ४
(ख) आचारांगसूत्र, श्रु. १, अ. ८, उ. ६, सू. २२२
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