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ॐ ३०४ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ७ ॐ
गर्मी, भूख, प्यास न लगे, इसे सर्प न काट ले, इसे चोर-लुटेरे आतंकित न करें, इसे डांस, मच्छर न काटें, इसे वात-पित्त-कफजनित या सान्निपातिक विविध रोग आतंक तथा परीषहों या उपसर्गों का स्पर्श न हो, इस (प्रकार की देहासक्ति) का भी मैं अन्तिम श्वासोच्छ्वास-पर्यन्त व्युत्सर्ग करता हूँ।"'. देहासक्ति-त्याग के लिए इन आशंसाओं और अतिचारों से बचना आवश्यक
साथ ही इस संलेखना (शरीर और कषायों को कश करने की) साधना द्वारा देहासक्ति के त्यागपूर्वक समाधिमरण के ५ अतिचारों = दोषों = भूलों (इस लोक सम्बन्धी आशंसा, परलोक सम्बन्धी आशंसा, जीवन और मरण की आशंसा, कामभोग सम्बन्धी लिप्साओं एवं समस्त निदानों) से रहित होकर निर्दोष अनशन द्वारा समाधिमरण स्वीकारता हूँ। 'तत्त्वार्थसूत्र' में संलेखनाव्रत के पाँच अतिचार बताए हैं-(१) जीविताशंसा, (२) मरणाशंसा, (३) मित्रानुराग (मित्रों या हितैषियों, सगे-सम्बन्धियों, स्वजनों के प्रति स्नेहबन्धन), (४) सुखानुबन्ध (अनुभूत सुखों का स्मरण करके उन्हें ताजा बनाना), और (५) निदानकरण। 'स्थानांगसूत्र' में दस प्रकार के आशंसा प्रयोग बताए हैं, जिनका त्याग करना संलेखना-संथारा के समय अतिआवश्यक है-(१) इहलोकाशंसा-प्रयोग, (२) परलोकाशंसा-प्रयोग, (३) द्विधा-लोकाशंसा-प्रयोग, (४) जीविताशंसा-प्रयोग, (५) मरणाशंसा-प्रयोग, (६) कामाशंसा-प्रयोग, (७) भोगाशंसा-प्रयोग, (८) लाभाशंसा-प्रयोग, (९) पूजाशंसा-प्रयोग, और (१०) सत्काराशंसा-प्रयोग। यावज्जीव अनशन तप या बाह्य-आभ्यन्तर किसी भी प्रकार के तप में आत्म-शुद्धि और सर्वकर्ममुक्तिरूप मोक्ष के लक्ष्य की दृष्टि से इन आशंसाओं तथा देहासक्ति के दूषणों से बचना अत्यावश्यक है। तभी वह तप शुद्ध और सम्यक्तप होगा, कर्मनिर्जरा और मोक्ष-प्राप्त कराने में सहायक होगा।
१. जं पि य इमं सरीरं इ8 कंतं पिय मणुण्णं मणामं थेज्जं (धिज्जं), विसासियं समयं बहुमयं
अणुमयं भंडकरंडगसमाणं, मा णं सीयं, मा णं उण्हं, मा णं खुहा, मा णं पिवासा, मा णं वाला, मा णं चोरा, मा णं दंसा, मा णं मसगा, मा णं वाइय-पित्तिय संनिवाइय-विविहा रोगायंगा, परीसहो वसग्गा फासा फुसंतु ति कट्ट। एयं पि णं चरिमेहिं उसास-णीसासेहिं वोसिरामो त्ति कटु संलेहणा-झूमणा-झूलिया भत्तपाणपडिया इक्खिया पाओवगया कालं से अणवकंखमाणां विहरंति।
-औपपातिकसूत्र १३/३८ २. (क) देखें-आवश्यकसूत्र में इहलोगासंसप्पओगे आदि संलेखना के ५ अतिचार
(ख) देखें-स्थानांगसूत्र, स्था. १० में दस प्रकार के आशंसा-प्रयोग (ग) जीवित-मरणाशंसा-मित्रानुराग-सुखानुबन्ध-निदानकरणानि।
-तत्त्वार्थसूत्र, अ. ७, सू. ३२
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