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३१६ कर्मविज्ञान : भाग ७
“पावं छिंदइ जम्हा पायच्छित्तं ति भण्णइ तेण ।”
पाय नाम है पाप का | जो पाप का छेदन करता है, दूर करता है, उसे कहते हैं- 'पायच्छित्त ।'
एक आचार्य के अनुसार प्रायश्चित्त की व्युत्पत्ति इस प्रकार है
“पापं छिनत्ति यस्मात्, प्रायश्चित्तमिति भण्यते तस्मात् । प्रायेण वाऽपि चित्तं विशोधयति तेन प्रायश्चित्तम् ।"
- जिससे पाप का छेदन हो अथवा जो प्रायः चित्त की विशोधि करता हो, उसे प्रायश्चित्त कहते हैं। इस प्रकार प्रायश्चित्त की मुख्यतया तीन परिभाषाएँ हुईं(१) अतिचार (दोष) की विशुद्धि के लिए किया जाने वाला प्रयत्न प्रायश्चित्त है। (२) जिससे पाप का छेदन होता है, वह प्रायश्चित्त है । ( ३ ) जिससे अपराध का शोधन होता है, वह प्रायश्चित्त है । '
अन्तःकरण की शुद्धि के बिना आत्म-साधना में सिद्धि सम्भव नहीं
प्रायश्चित्त मन, बुद्धि, चित्त और हृदय आदि अन्तःकरणों की शुद्धि के लिए है । शरीर शुद्ध कर लिया, परन्तु अन्तःकरण में काम, क्रोध, मोह, मद, मत्सर, ईर्ष्या, द्वेष, वैरभाव, अहंकार आदि हानिकारक आत्म-विघातक विकारों का मल ( गंदगी) भरा पड़ा है तो उसके कारण साधना में अभिवृद्धि नहीं हो पायेगी । आत्मा अशुद्ध : है तो उसकी प्रतिक्रिया बाह्य परिस्थितियों और पारिपार्श्विक व्यक्तियों पर पड़ती है। जिसके फलस्वरूप अगणित समस्याएँ और विपदाएँ पैदा होती हैं। लालटेन का शीशा अगर मलिन हो तो उसमें चाहे जितना तेल भरा हो, बत्ती अच्छी हो और प्रकाश चाहे जितना तेज हो, वह बाहर नही पड़ सकता, इसी प्रकार अन्तरात्मा के मनरूपी शीशे पर पापों और दोषों की कालिमा जम गई हो तो अन्तरात्मा चाहे जितनी शक्तिशाली हो, इन्द्रियाँ भी सशक्त और अवकिल हों। अन्तरात्मा का प्रकाश या प्रभाव बाहर नहीं पड़ सकेगा।
इसलिए मनरूपी शीशे को प्रायश्चित्ततप द्वारा साफ कर लेने पर ही अन्तरात्मा का प्रकाश बाहर पड़ सकेगा और तभी सर्वकर्ममुक्तिरूपी मोक्ष की साधना अबाधगति से हो सकेगी। अतः प्रायश्चित्त मन को निर्मल, पवित्र, सक्षम और शुद्ध बनाने वाला तप है । अन्तःकरण के, हृदय के परिवर्तन का ही दूसरा
१. ( क ) धर्मसंग्रह अधिकार ३
(ख) पंचाशक सटीक, विवरण १६ / ३
( ग ) 'जैनभारती, अक्टूबर १९९१' से उद्धृत
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