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ॐ ३०० ॐ कर्मविज्ञान : भाग ७ *
मूर्छा, अहंता, लालसा, लिप्सा, गृद्धि, आसक्ति, ये सब आ जाते हैं। स्थूलशरीर द्वारा बाह्यतप का प्रमुख कारण शरीर और शरीर से सम्बन्धित सजीव-निर्जीव पर-पदार्थों और विभावों के प्रति आसक्ति और मूर्छा को तोड़ना है। आहार और शरीर तथा शरीर से सम्बन्धित पर-पदार्थों के प्रति आसक्ति देहासक्ति है। अतः अनशन, ऊनोदरी, रस-परित्याग, वृत्ति-संक्षेप, कायक्लेश और प्रतिसंलीनता, ये छहों बाह्यतप पूर्वोक्त देहासक्ति पर सीधा प्रहार करते हैं। आहार के प्रति जब आसक्ति होती है, तब मनुष्य कर्म से मुक्त होने की दृष्टि से न सोचकर देह के प्रति ममत्ववश मन ही मन यह सोचता है कि आहार नहीं करूँगा तो दुर्बल हो जाऊँगा. कार्य न कर सकँगा. आहार-त्याग करने पर मेरा शरीर थक जाएगा। यह । भ्रान्ति देह को सरस, स्वादिष्ट, मसालेदार, तामसी, राजसी, आहार देने की लिप्सा दोनों देहासक्ति को जगाती हैं, किन्तु उपवासादि तप का अभ्यासी व्यक्ति आहार के बिना भी स्वस्थ, सशक्त रह सकता है। मनुष्य सुबह से लेकर रात को सोने तक न जाने कितने-कितने कषाययुक्त क्रियाकलाप शरीर के लिए करता है? शरीर को टिकाने के लिए थोड़ा-सा सात्त्विक आहार चाहिए, पर वह शरीर को पुष्ट करने, जिह्वेन्द्रिय के वश होकर तथा शरीर के प्रति आसक्ति रखकर नाना प्रकार के स्वादिष्ट, चटपटे व्यंजन, मिष्टान्न तथा विकृतिपूर्ण आहार करता है; बदले में कर्मबन्ध अधिकाधिक होता जाता है, पाँचों इन्द्रियों पर जरा भी संयम करने को कहा जाए तो वह तैयार नहीं होता। उसका कारण है, शरीर के प्रति गाढ़ आसक्ति। इसी गाढ़ आसक्ति के फलस्वरूप जब वह किसी उदर-पीड़ा, मस्तिष्क-पीड़ा, कैंसर आदि भयंकर रोग की पीड़ा से आक्रान्त होता है, तब जरा-सी भी पीड़ा को सहन नहीं कर पाता, वह रोता है, चिल्लाता है, भयंकर आर्तनाद करता है, भगवान, देवी-देव तथा अन्य कतिपय निमित्तों को कोसता है। देहासक्तिवश इस प्रकार वह भयंकर कर्मबन्ध कर लेता है। बाह्यतप से देहासक्ति कैसे छूटती है, कैसे नहीं ?
अगर व्यक्ति सम्यग्ज्ञानपूर्वक अनशनादि चार आहार-सम्बन्धी तप तथा कायक्लेश और प्रतिसंलीनता तप से अभ्यस्त होता तो शान्ति से शरीरादि कष्ट को सहन करता, स्वकृत कर्मों का परिणाम समझकर अन्तरात्मा में संलीन हो जाता, आत्म-स्वरूप का चिन्तन करके उसमें लीन हो जाता। ऐसी स्थिति में वह अपने आप को अशुभ कर्मबन्ध से तभी रोक पाता तथा पूर्वबद्ध कर्मों के उदय में आने पर निर्जरा भी तभी कर पाता, जब वह पूर्वोक्त अनशनादि चार बाह्यतपों से, विशेषतः कायक्लेश द्वारा कष्ट-सहिष्णुता से और प्रतिसंलीनता से इन्द्रिय, काय
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