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ॐ २८२ * कर्मविज्ञान : भाग ७ ॐ
‘कार्तिकेयानुप्रेक्षा' में भी इसी तथ्य का समर्थन करते हुए कहा गया है“सम्यग्ज्ञानयुक्त साधक को बारह प्रकार के तप से तभी निर्जरा (सकामनिर्जरा) होती है, जब वह निदानरहित हो, निरहंकारी हो तथा वैराग्यभावना (अथवा सांसारिक भोगों के प्रति विरक्तिभाव और बारह प्रकार की भावना = अनुप्रेक्षा) से युक्त हो।' तप करके जो निदान करता है, मद करता है, दूसरों को नीचा-हलका मानता है, ख्याति, लाभ, पूजा, इन्द्रिय-विषयभोगों की आकांक्षा करता है, उसके कर्म टूटने के बजाय उलटे बँध जाते हैं। नौ प्रकार के निदान में कितनी अध्यात्म हानि, कितना भौतिक लाभ ? .
इस अवसर पर भगवान महावीर ने सर्वकर्ममुक्तिरूप मोक्ष में अत्यन्त बाधक तथा तप, संयम, नियम, ब्रह्मचर्य आदि की साधना को दूषित करने वाले नौ प्रकार के निदानों और उनके कारण मिलने वाले फल आदि का निरूपण किया। वह . संक्षेप में इस प्रकार है
प्रथम निदान केवलिप्रज्ञप्त धर्म में उपस्थित होकर कोई निर्ग्रन्थ परीषहों और उपसर्गों से पराजित होकर कामभोगों से समृद्ध, किन्हीं सुख-सुविधा-संपन्न पुरुषों को देखकर वैसे ही कामभोगों से सम्पन्न पुरुष होने का (अपने तपादि के फलस्वरूप) निदान करता है। उसका आलोचन, प्रतिक्रमण न करने से वह देवलोक में उत्पत्ति के बाद आगामी जन्म में वैसे कुल में पुत्ररूप में उत्पन्न होता है। निदान के अनुसार वैसे ही कामभोगों से सम्पन्न पुरुष बनता है। उसे तथारूप श्रमण या माहन केवलि-प्रज्ञप्त धर्म का उपदेश देते हैं, किन्तु वह उक्त धर्म को श्रवण करने के योग्य नहीं होता। वह महारम्भी, महापरिग्रही तथा महती इच्छाओं से युक्त होकर आगामी भवों में भी अधार्मिक और दुर्लभबोधि होता है।
दूसरा निदान-इसी प्रकार निर्ग्रन्थधर्म में दीक्षित कोई निर्ग्रन्थी अपने तपश्चरणादि के फलस्वरूप किसी कामभोगसुखों से सम्पन्न महिला को देखकर वैसी ही बनने का निदान करती है। अन्तिम समय में उसकी आलोचना आदि न करके विराधक होती है। आगामी जन्म में निदानानुसार वैसी ही भोगसुख-सम्पन्ना बनती है। पूर्ववत् धर्मश्रवण नहीं करती। दुर्लभबोधि बनती है। ____ तीसरा निदान-पूर्ववत् निर्ग्रन्थधर्म में दीक्षित होकर कोई निर्ग्रन्थ पुरुषपर्याय को दुःखरूप जानकर पूर्ववत् कामसुख-सम्पन्न स्त्रीपर्याय का निदान करता है। वहाँ से मरकर देव बनता है और फिर मनुष्य-भव पाकर स्त्रीपर्याय प्राप्त करता है।
१. बारसविहेण तवसा णियाणरहियस्स णिज्जरा होदि।
वैराग-भावणादो णिरहंकारस्स णाणिस्स।
-कार्तिकेयानुप्रेक्षा १०२
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