________________
* सकामनिर्जरा का एक प्रबल कारण : सम्यक्तप 8 २८५ *
निदान से सम्बन्धित तथ्यों से स्पष्ट है कि दिव्य एवं मानवीय भोगों से विरक्त निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थी और श्रावक-श्राविका भी यदि अपने तप-त्याग-संयम आदि के फल के बदले में श्रावकत्व, साधुत्व, तीर्थंकरपद या दरिद्र कुल में उत्पन्न होकर मुनिपद पाने का भी निदान करते हैं, तो वह भी आगे की अध्यात्म-साधना में ब्रेक लगा देता है, वहीं तक साधना को ठप्प कर देता है, निदानकरण के बाद पुनर्जन्म अवश्यम्भावी है, इसलिए सर्वकर्ममुक्तिरूप मोक्ष में भी वह निदान बाधक बनता है। चरमशरीरीपद, तीर्थंकरपद और दरिद्रकुलोत्पन्न होकर मुनिपद की अभिलाषायुक्त निदान में पुनर्जन्म की अभिलाषा तथा तीर्थंकरपद के अतिशयों तथा लोक में यश, कीर्ति, वैभव आदि की अभिलाषा छिपी है। इसलिए 'पंचाशक' में कहा है"इहलौकिक या पारलौकिक निमित्तक निदान हो, चाहे तीर्थंकरपद का हो या चरमशरीरी बनने का हो सभी निदान त्याज्य हैं, भगवान ने सर्वत्र सर्वावस्थाओं में अनिदानत्व को ही प्रशस्त कहा है।" अतः अनशनादि समस्त तपश्चरण की तथा महाव्रतादि की साधना सर्वत्र अनिदानभाव-निष्कामभाव से ही करनी चाहिए, वही सकामनिर्जरा तथा मोक्ष की परिपोषक होगी।' - ऐसे बाह्यतप को बालतप नहीं कहा जा सकता : क्यों और कैसे ?
'अनुत्तरोपपातिकसूत्र' में काकन्दीनगरी-निवासी धन्ना अनगार की उत्कट बाह्य तपस्या का वर्णन है, जिसमें पैर से लेकर मस्तक तक सभी अंगों के तपस्या से सूख जाने, रूक्ष और कृश हो जाने, यहाँ तक कि शरीर अस्थिपंजरमात्र रह जाने का उल्लेख है। इतना ही नहीं, मगध-नरेश श्रेणिक राजा द्वारा भगवान महावीर से यह पूछे जाने पर कि उनके १४ हजार श्रमणों में अत्यन्त दुष्करकारक तथा महानिर्जराकारक कौन श्रमण हैं? भगवान ने इसके उत्तर में धन्ना अनगार की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए उसे महादुष्करकारक और महानिर्जराकारक बताया।
पिछले पृष्ठ का शेष
सम्मत्ताए मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए। (IX) जइ इमस्स तवनियम जाव वयमवि आगमेस्साणं जाइं इमाइं अंत पंत तुच्छ दरिद्द - किवण भिक्खागकुलाणि वा पुसत्ताए एस मे परियाए सुणीहडे भविस्सइ। तस्स णियाणस्स इमेयारूवे फलविवागे जं णो संचाएइ तेणेव भवग्गहणेणं सिज्झित्तए जाव सव्वदुक्खाणमंतं करित्तए।
-दशाश्रुतस्कन्ध, दशा १0, सू. २४१-२६३ १. (क). सव्वत्थ भगवया अनियाणया पसत्था। -स्थानांग ६, व्यवहार ६, भगवतीसूत्र (ख) इह-पर-लोगनिमित्तं अवि तित्थकरत्तं चरिमदेहत्तं।
सव्वत्थेसु भगवता अणिदाणं पसत्थं तु॥ -पंचाशक विवरण, गा. २५८ तथा टीका (ग) 'जैनधर्म में तप : स्वरूप और विश्लेषण' (मरुधरकेसरी जी) से भाव ग्रहण, पृ.
११३-११४
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org