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* सकामनिर्जरा का एक प्रबल कारण : सम्यक्तप ॐ २७९ *
है। अतः वह यदि दीर्घदृष्टि से या सद्गुरु प्रेरणा से एकमात्र कर्मों का क्षय करने (सकामनिर्जरा करने) हेतु तप करे तो उक्त कर्मों का क्षय होने से उसे अनायास ही सर्व दुःखों से छुटकारा मिल सकता है। इसलिए कर्मों की निर्जरा करके आत्म-विशुद्धि या मोक्ष-प्राप्ति करना ही सम्यक्तप का उद्देश्य समझना चाहिए।
सम्यक्तप के साथ निदान से आत्म-शुद्धि की साधना नष्ट हो जाती है सम्यक्तप का लक्ष्य आत्म-शुद्धि है। बाह्य-आभ्यन्तर तप द्वारा आत्मा को उज्ज्वल एवं पवित्र बनाकर आत्म-स्वरूप दशा को प्राप्त करना ही उसका अनन्तर फल है। तप का फल अचिन्त्य एवं असीम है। करोड़ों भवों में संचित कर्म तप से क्षय हो जाते हैं, झड़ जाते हैं। किन्तु कभी-कभी तप करने वाला साधक आत्म-शुद्धि एवं कर्मों की सकामनिर्जरा का लक्ष्य चूककर तप से भौतिक, सांसारिक समृद्धि एवं सुखों की कामना करने लग जाता है। सांसारिक लोगों के वैभव, सुख एवं समृद्धि को देखकर उत्कट सम्यक् तपस्या करने घाला तपस्वी साधक भी ऐसा संकल्प करने लगता है-"मेरी तपस्या का कुछ फल हो या प्रभाव हो तो, मुझे भी ऐसा लाभ मिले अथवा मैं भी इसी प्रकार का यशस्वी, वैभवशाली, सत्ताधीश, दिव्यऋद्धि-सम्पन्न या सम्पत्तिशाली बनूँ। मेरे तप के प्रभाव से मुझे भी ऐसा घर, ऐसी पत्नी, ऐसा परिवार, ऐसा राज्य और ऐसी सुख-समृद्धि मिले, ये
और इस प्रकार की कामना या तीव्र आकांक्षा करके साधक तप को दाव पर लगाने के लिए अधीर हो उठता है।" इसे ही जैन-आगमों में निदान या नियाणा कहा है। सम्यक्तप के साथ इस प्रकार का तुच्छ भौतिक संकल्प पैदा होना-'तप का शल्य' माना गया है। ऐसा निदान करने वाला मूर्ख साधक अक्षय मोक्ष सुख प्रदान करने वाले तप को, संसार के तुच्छ इन्द्रिय-विषयों एवं कामभोगों के क्षणिक एवं नश्वर सुखों के लिए बेच देता है। ऐसा करना हीरे को कंकर के मोल बेच . देना है। मोहनीय कर्म के उदय से साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका द्वारा अपने चित्त में दुःसंकल्प करना कि मेरी तपस्या से मुझे अमुक फल प्राप्त हो, इसे निदान (नियाणा) कहते हैं।
'स्थानांगवृत्ति' में निदान शब्द की परिभाषा इस प्रकार की गई है"अक्षय-मोक्षसुखरूप आनन्दरस से ओतप्रोत, ज्ञान, तप आदि की आराधनारूपी लता, जिस इन्द्र, चक्रवर्ती आदि के भोगों की अभिलाषारूप कुल्हाड़ी से काट दी जाती है, उस भोगाभिलाषारूप कुल्हाड़ी को 'निदान' कहते हैं।' निदान शब्द का अर्थ होता है-निश्चय अथवा बाँध देना। 'आवश्यकसूत्र वृत्ति' के अनुसार-"किसी देवता या वैभवशाली राजा या धनिक आदि मनुष्य की ऋद्धि या सुखों को देखकर या सुनकर उसकी प्राप्ति के लिए निश्चय (संकल्प) करना कि मेरे ब्रह्मचर्यादि या
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