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* ८६ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ७ *
भय के मुख्य सात निमित्त कारण
जैनागमों में भय के सात प्रमुख कारण (स्थान) बताये गये हैं-(१) इहलोकभय, (२) परलोकभय, (३) आदान (अत्राण) भय, (४) अकस्मात्भय, (५) वेदनाभय ये आजीविकाभय, (६) अश्लोकभय या अपयशभय, और (७) मरणभय। दिगम्बर परम्परा में आदानभय के बदले अत्राणभय, अश्लोकभय के बदले अगुप्तिभय शब्द मिलता है। इहलोकभय-परलोकभय-आजीविकाभय इहलोकभय में गतार्थ हो जाता है। इस लोक में मनुष्य, तिर्यञ्च या देव आदि किसी प्राणी का भय अथवा किस जबर्दस्त व्यक्ति का भय इहलोकभय है। इसके अतिरिक्त किसी को धन, पद अधिकार अथवा किसी व्यक्ति या वस्तु के खाने, छूट जाने या वियोग होने का भर लगा रहता है, वह भी इहलोकभय है। परन्तु यह भय वृथा है। अगर व्यक्ति सत्य, अहिंसा और ईमानदारी आदि के मार्ग पर चल रहा है, तो उसे किसी भी व्यक्ति या विपत्ति से घबराने की आवश्यकता नहीं। वृक्ष की जड़ मजबूत हो तो उसे पतझड़ की ऋतु आने पर सारे पत्ते-फल-फूल झड़ जाने पर भी कोई चिन्ता नहीं होती, क्योंकि वसन्त का आगमन होते ही वह पुनः पल्लवित-पुष्पित-फलित हो जाता है, इसी प्रकार जिस साधक में सत्यनिष्ठा, धर्मनिष्ठा, प्रामाणिकता या समता विद्यमान है, उसे सब कुछ बाह्य साधनों के चले जाने पर भी घबराहट नहीं होती। सम्यग्दृष्टि आत्मा वही है, जिसे इहलोक-परलोक का भय नहीं होता आत्मा की अमरता-नित्यता पर जिसे विश्वास है, उसे किसी भी प्राणी से भय नहीं होता।
परलोक का भय भी उसे सताता है जो यह सोचता रहता है कि परलोक में मेरा क्या होगा? मुझे नरक मिला तो कितनी यातनाएँ सहनी पड़ेंगी? मुझे स्वर्ग न मिला तो ये सारे सुख, जो इस जीवन में मिले हैं, सब छूट जायेंगे। इस प्रकार का भय उसी को होता है, जो धर्ममार्ग को छोड़कर अन्याय, अनीति, हिंसा आदि पापकर्म के पथ पर चलता है। जो सद्धर्म का आचरण करता है, सम्यग्दृष्टि है, उसे परलोक का भय भी नहीं होता। परलोक को मानने में कोई दोष नहीं, परन्तु उससे डरना ठीक नहीं। आदानभय का अर्थ है-वस्तुओं के छिन जाने, अपहरण किये जाने या चुराये जाने का भय। और अत्राणभय का अर्थ है-अपनी या अपनों की सुरक्षा का अथवा धनादि के संरक्षण का भय। इन भयों से भी सम्यग्दृष्टि साधक आक्रान्त होता है, मोहनीय कर्म बाँध लेता है, परन्तु सुरक्षा के कारणभूत
१. (क) सत्त भयट्ठाणा पण्णत्ता तं.-इहलोगभए परलोगभए आदाणभए अकम्हाभए वेयणभए _मरणभए असिलोगभए।
__ -स्थानांगसूत्र, स्था. ७, उ. १ (ख) इह-परलोयत्ताणं अगुत्ति-मरणं च वेयणाकस्सि भया।
-मूलाचार ५३
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