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ॐ निर्जरा के विविध स्रोत ® २३९ *
की होती है। ‘बारस अणुवेक्खा' में स्पष्ट कहा है-चारों ही गति के (मिथ्यादृष्टि, अज्ञानी, गाढ़-अगाढ़ कर्मलिप्त) सभी जीवों के सविपाक निर्जरा होती है, जबकि दूसरी (अविपाक) निर्जरा सम्यग्दर्शन-ज्ञानयुक्त जीवों एवं व्रतधारियों का ज्ञानियों के होती है। 'द्रव्यसंग्रह टीका' में कहा है-अविपाक निर्जरा ही मोक्ष की कारण है। यह निर्जरा (सकामनिर्जरा के समान) सम्यग्दृष्टि और सम्यग्ज्ञानी के ही होती है। सविपाक निर्जरा तो नरक, तिर्यञ्च आदि गतियों में मिथ्यादृष्टि एवं अज्ञानियों के होती हुई देखी जाती है। अज्ञानियों की वह निर्जरा गजस्नान के समान निष्फल होती है, क्योंकि अज्ञानी जीव थोड़े-से कर्मों की निर्जरा करता है और बहुत-से नये कर्म और बाँध लेता है। सविपाक निर्जरा को अकुशलानुबन्धा या अबुद्धिपूर्वा भी कहा गया है; जबकि समभावपूर्वक परीषह-सहन करने को अविपाक निर्जरा को कुशलमूला कहा गया है। अविपाक निर्जरा मिथ्यादृष्टि द्वारा इच्छा निरोध न होने से शुभानुबन्धा होती है, वही निर्जरा इच्छा-निरोध होने से सम्यग्दृष्टि के द्वारा निरनुबन्धा होती है।
सरागसम्यग्दृष्टि या सरागसंयमी के अशुभ कर्मों की महानिर्जरा कैसे ? इसलिए कर्ममुक्ति के इच्छुक साधक को अज्ञानी जनों द्वारा आचरित सविपाक या अकामनिर्जरा को नहीं अपनाकर, अविपाकजा या सकामनिर्जरा को ही अपनाना चाहिए। यद्यपि सम्यग्दृष्टि ज्ञानी जीवों में सरागसम्यग्दृष्टि या सरागसंयमी के जो निर्जरा होती है, उसमें अशुभ कर्मों का क्षय होता है, शुभ कर्मों का नहीं; फिर भी वह संसार की स्थिति को अल्प कर देती है और उसी भव में तीर्थंकर नामकर्म प्रकृति आदि विशिष्ट पुण्यबन्ध का कारण भी होती है; जोकि परम्परा से मोक्ष की कारण हैं। 'उत्तराध्ययनसूत्र' में बताया गया है कि वैयावृत्य (शास्त्रोक्त दशविध वैयावृत्य) से तीर्थंकर नामगोत्र कर्म (उत्कृष्ट पुण्य) का बन्ध होता है।
१. (क) क्रमेण परिपाककालप्राप्तस्यानुभवोदयावलिस्रोतोऽनुप्रविष्टस्यारब्धफलस्य या निवृत्तिः
सा विपाकजा निर्जरा। यत्कर्माप्राप्त-विपाककालमौपक्रमिकक्रियाविशेष-सामर्थ्यादनुदीर्णबलादुदीर्णोदयावलिं प्रवेश्य वेद्यते आम्र-पनसादि-पाकवत् सा अविपाकजा निर्जरा।
-स. सि. ८/२३/३९९/९ (ख) सा द्वधा अबुद्धिपूर्वा कुशलमूला चेति। तत्र नरकादिगतिषु कर्मफलविपाकजा
अबुद्धिपूर्वा साऽकुशलानुबन्धा। परीषहजये कृते कुशलमूला। सा शुभानुबन्धा निरनुबन्धा चेति।
-वही ९/७/४१७/९ (ग) सव्वेसिं उदयसमागदस्स कम्मस्स णिज्जरा होइ।
कम्मस्स तवेण पुणो सव्वस्स वि णिज्जरा होइ॥ -भगवती आराधना १८४९ (घ) चादुगदीणं पढमा वयजुत्ताणं हवे बिदिया।
-बारस अणुवेक्खा ६७
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