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* २३८ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ७ *
(६) दर्शनमोह के क्षपक की अपेक्षा उपशमक (उपशम श्रेणी वाले) के असंख्यातगुणी निर्जरा होती है। दर्शन मोहत्रिक क्षपक के बाद उपशमक की निर्जरा को अधिक बताने का कारण यह है कि क्षायिक सम्यग्दर्शन चौथे, पाँचवें, छठे और सातवें गुणस्थान में प्रकट होता है, जबकि चारित्रमोह का उपशम करने को उद्यत उपशम श्रेणी वाले जीव के आठवाँ, नौवाँ और दसवाँ गुणस्थान होता है।
(७) उपशमक जीव की अपेक्षा असंख्यातगुणी निर्जरा ग्यारहवें उपशान्तमोह गुणस्थान में होती है।
(८) उपशान्तमोह वाले जीव की अपेक्षा क्षपक (क्षपक श्रेणी वाले) जीव के असंख्यातगुणी निर्जरा होती है। इस जीव के भी आठवाँ, नौवाँ और दसवाँ गुणस्थान होता है।
(९) क्षपक श्रेणी वाले (क्षपक) जीव की अपेक्षा बारहवें क्षीणमोह गुणस्थान वाले के असंख्यातगुणी निर्जरा होती है।
(१०) बारहवें क्षीणमोह गुणस्थान की अपेक्षा 'जिन' (तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान वालों) के असंख्यातगुणी निर्जरा होती है जिनके तीन भेद होते हैं(१) स्वस्थान केवली, (२) समुद्घात केवली, और (३) अयोग केवली। इन तीनों में भी उत्तरोत्तर विशुद्धता के कारण असंख्यातगुणी निर्जरा है।' दिगम्बर परम्परा में सविपाक-अविपाक निर्जरा : एक अनुचिन्तन
दिगम्बर परम्परा में निर्जरा के दो भेद बताये गये हैं-सबिपाक और अविपाक अथवा विपाकजा और अविपाकजा। ‘सर्वार्थसिद्धि' के अनुसार-क्रमशः परिपाककाल को प्राप्त हुए और अनुभव (फलभोग) रूपी उदयावली के स्रोत में प्रविष्ट शुभाशुभ कर्मों का फल देकर निवृत्त होना (छूट जाना) विपाकजा निर्जरा है तथा जिस प्रकार आम और कटहल को औपक्रमिक क्रिया-विशेष द्वारा अकाल में (काल परिपक्व होने से पहले) ही पका लेते हैं, उसी प्रकार जिसका विपाककाल अभी प्राप्त नहीं हुआ है तथा जो उदयावली से बाहर स्थित हैं, ऐसे कर्म को तप, संयम, परीषहादि-सहन आदि औपक्रमिक क्रिया-विशेष सामर्थ्य से उदयावली में प्रविष्ट कराकर समभाव से भोगा जाता है, वह अविपाकजा निर्जरा है। ‘भगवती आराधना' के अनुसार-सविपाक निर्जरा तो केवल उदय-प्राप्त (परिपक्व) कर्मों की ही होती है। परन्तु अविपाक निर्जरा तो तप आदि द्वारा पक्व-अपक्व सभी कर्मों १. (क) सर्वार्थसिद्धि ९/३५१/१५ (ख) 'मोक्षशास्त्र' (गुजराती टीका) (टीका संग्राहक एण्ड राम जी माणेकचन्द दोशी) से
भाव ग्रहण, पृ. ७५९-७६१
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