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* निर्जरा के विविध स्रोत ॐ २४३ ॐ
इसी तरह अम्बड़ परिव्राजक स्वयं भी सम्यग्दर्शन-ज्ञानपूर्वक अणुव्रत-गुणव्रतशिक्षाव्रत आदि से युक्त था। वह भी अन्तिम समय में एक मास का संलेखनासंथारा करके यावत् ब्रह्मलोक कल्प में उत्पन्न हुआ। उसकी यह निर्जरा भी सकाम थी। अम्बड़ के भविष्य के बारे में बताया गया है कि वह महाविदेह क्षेत्र में सुसम्पन्न संस्कारी कुल में जन्म लेकर अनगार धर्म को प्राप्त करेगा। साधु-जीवन की चर्या का निरतिचारपूर्वक पालन करते हुए वह अनेक परीषहों-उपसर्गों को समभाव से सहकर मासिक संलेखना-संथारा ग्रहण करके इन औदारिकादि समस्त शरीरों को सदा के लिए छोड़कर सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होगा। दृढ़-प्रतिज्ञ अनगार के रूप में अम्बड़ के जीव की यह महानिर्जरा थी।
निर्ग्रन्थ श्रमणों की महानिर्जरा महापर्यवसान के रूप में सर्वकर्ममुक्ति ___ इसी प्रकार अनारम्भ, अपरिग्रह, सुव्रत तथा पाँच महाव्रत, पाँच समिति, तीन गुप्ति के पालक, अठारह पापस्थानों से विरत, समस्त आरम्भ-समारम्भ से विरत, सावधयोगों से रहित श्रमण-निर्ग्रन्थ भी जिनकल्प या स्थविरकल्प भाव से श्रामण्य-पर्याय का पालन करते हुए कई श्रमणों को केवलज्ञान शीघ्र प्राप्त हो जाता है, कई श्रमणों को चिरकाल के पश्चात् श्रमणधर्माराधन करते हुए केवलज्ञान प्राप्त होता है और वे सब अन्तिम समय में सर्वकर्मों का क्षय करके सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होते हैं। उनमें से जिनके कुछ कर्म अवशिष्ट रहते हैं, वे सर्वार्थसिद्ध में वैमानिक देव बनते हैं। आराधक होते हैं। जो मनुष्य सर्वकाम, सर्वस्नेह, सर्वसंग से अतीत तथा क्रोधादि कषायों से क्रमशः रहित होकर क्रमशः आठों ही कर्मों का क्षय कर देते हैं, वे सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होकर लोकाग्र में स्थित हो जाते हैं।'
भोगों का सर्वथा त्याग महानिर्जरा का कारण कब ? . महानिर्जरा और महापर्यवसान कौन कर सकता है? इस सम्बन्ध में 'भगवतीसूत्र' का यह कथन कितना मार्मिक है-“भविष्य में किसी देवलोक में उत्पन्न होने योग्य छद्मस्थ मानव अपने अन्तिम समय में काया से क्षीण भोगी तथा उत्थानादि से भी विपुल भोग भोगने में असमर्थ एवं तपस्या या रोगादि के कारण काया से दुर्बल, क्षीण, किन्तु वचन एवं मन से भोग समर्थ होते हुए भी जो (स्वाधीन या अस्वाधीन) भोगों का त्याग करता है, तथैव वैसा ही क्षीणकाय, किन्तु वचन, मन से
१. (क) देखें-औपपातिकसूत्र ३८/१३ एवं ३९/१४ में अम्बड़ परिव्राजक तथा उसके सात सौ
आराधक शिष्यों का वर्णन (ख) देखें-औपपातिकसूत्र ४0/२0-२२ पाठ, जिसमें श्रमण निर्ग्रन्थों की महानिर्जरा की
आराधना का विस्तृत वर्णन है।
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