________________
निर्जरा के विविध स्रोत 8 २५९ ®
एकलविहारप्रतिमा स्वीकार करके अभिग्रहधारक बन गये। उत्कट तपश्चर्या के कारण उन्होंने शरीर और आत्मा का भेदविज्ञान उपलब्ध कर लिया। एक बार विचरण करते हुए वे वीतभयनगर में पधारे। नगर के बाहर उद्यान में ठहरे। नगर की जनता बरसाती नदी की तरह उनके दर्शनों को उमड़ पड़ी। भागिनेय केशी राजा को जब राजर्षि उदायी मुनि के नगर में पदार्पण के समाचार मिले तो उसके मन में कुशंका पैदा हुई-“मेरे सभी राज्याधिकारी मुनिदर्शन करने गये हैं। कहीं ऐसा न हो कि वे उदायी मामा को सिखाकर या आग्रह करके राजसिंहासन पर बिठा दें।" यों अकारण ही भयभीत होकर राजा ने नगर में डोंडी पिटवा दी-“जो उदायी मुनि को अपने स्थान में ठहरायेगा या उन्हें आहार-पानी देगा, वह राज्य का गुनहगार समझा जायेगा, उसे राज्य से निर्वासित कर दिया जायेगा।” इस अप्रत्याशित और अन्यायपूर्ण घोषणा को सुनकर नगर की सारी जनता, यहाँ तक कि श्रावकगण भी आश्चर्य में पड़ गये। उन्होंने बरबस राजाज्ञा के पालन में ही अपना हित समझा।
राजर्षि उदायी मुनि को राजा के इस अनैतिक आदेश का मालूम नहीं था। अचानक मुनि को तीव्र ज्वर ने आ घेरा। शरीर में बेचैनी थी, इसलिए उन्हें विश्रान्ति की भी आवश्यकता थी। यह सोचकर वे नगर में ठहरने के लिए स्थान की तथा आहार की तलाश में पधारे। मगर राजाज्ञा के भय से किसी ने उन्हें ठहरने को स्थान न दिया और न ही आहार दिया। पूर्वबद्ध अशुभ कर्मों के उदय के कारण राजर्षि उदायी मुनि को न तो उदरपूर्ति के लिए आहार मिला और न ही ठहरने के लिए झोंपड़ी तक मिली। राजर्षि अपने अशुभ कर्मों का उदय जानकर समभाव में विचर रहे थे। इतना तीव्र परीषह आने पर भी उनके मन में लेशमात्र भी उद्विग्नता, रोष या विषमता नहीं आई। उन्होंने आगन्तुक कष्टों और परीषहों को कर्मनिर्जरा का कारण समझकर शान्तिपूर्वक सहन किया। आखिर एक कुम्भकार ने ज्वरग्रस्त मुनि को दूर से ही देखकर अत्यन्त भक्तिभाव से अपने यहाँ ठहरा दिया। लोगों ने कुंभकार को बहकाया-"राजा, तेरा घरबार या धनमाल सब छीन लेगा या शूली पर चढ़वा देगा। फिर तू इन्हें स्थान देकर क्यों मूर्खता करता है?" साहसी एवं निर्भीक कुम्भकार ने उत्तर दिया-“यदि इस धर्मपालन के लिए मेरा धन, मकान या प्राण भी चले जायें तो भी मैं अपना सौभाग्य समझूगा।" केशी राजा को पता चला तो उसने कुंभकार का कुछ भी न छीनकर उदायी मुनि को जान से मारने का षड्यन्त्र रचा। एक वैद्य को लोभ देकर विषमिश्रित औषध देने को कहा। वैद्य ने जब उदायी मुनि को विनयपूर्वक औषध लेने को कहा, तो उन्होंने कहा-आप (बाह्य) रोग को मिटा सकते हैं, किन्तु रोग की जड़ (कर्म) को नहीं मिटा सकते। किन्तु चालाक वैद्य ने किसी घर में आहार को विषमिश्रित करके
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org