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सकामनिर्जरा का एक प्रबल कारण: सम्यक्तप २६७
सम्यक्तप से योगों और इन्द्रियों को हानि नहीं होती भगवान महावीर आदि सभी तीर्थंकरों, वीतरागपुरुषों ने स्वयं जिस तपस्या को दीर्घकाल तक आचरित और अनुभूत किया है और जिस तप को मोक्षमार्ग का अंग बताया है तथा उस तपश्चर्या का बाह्य और आभ्यन्तररूप से स्वेच्छा से और प्रसन्नतापूर्वक करने का निर्देश किया गया है, उससे सकामनिर्जरा बताई गई है। उस बाह्य- आभ्यन्तर तप से तन, मन, वचन और इन्द्रियों की कोई हानि नहीं होती, बल्कि तीनों योग तथा इन्द्रियाँ सुदृढ़, सशक्त एवं कष्ट सहने में सक्षम बन जाती हैं । इस दृष्टि से तप दुःखकारक नहीं, किन्तु पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा होने से सुखकारक और आत्मा के लिए उपकारक है। इस प्रकार के सम्यक्तप से कषाय उपशान्त होते हैं, राग-द्वेष, काम, मोह आदि विकार भी शान्त होते हैं, अशुभ कर्मों का क्षय होने से तथा शुभ कर्मों (पुण्यराशि) के बढ़ने से रोग, दुःख, कष्ट आदि भी मिट जाते हैं। जीवन में तेजस्विता, क्षमता और सहिष्णुता बढ़ती है । निराहार रहने से शरीर को कसकर सुदृढ़ बनाने हेतु विविध योगासनों से शीतातपादि पिछले पृष्ठ का शेष
(ङ) निकाचितानि कर्माणि तावद् भस्मी भवन्ति न । यावत्प्रवचने प्रोक्तस्तपोवह्निर्न दीप्यते ॥
(च) दुःखात्मकं तपः केचिन्मन्यन्ते तन्न युक्तिमत् । कर्मोदयस्वरूपत्वाद् बलीवर्दादि-दुःखवत् ॥१ ॥ सर्व एव च दुःख्येवं तपस्वी संप्रसज्यते । विशिष्ट स्तद्विशेषेण सुधनेन धनी यथा ॥ २ ॥ महातपस्विनश्चैवं त्वन्नीत्या नारकादयः । शम-सौख्यप्रधानत्वाद् योगिनस्त्वतपस्विनः ॥३॥ युक्त्यागमबहिर्भूतमतस्त्याज्यमिदं बुधैः ।
अशस्तध्यान जननात् प्राय आत्मापकारकम् ॥४॥
(छ) तदविरोधे च दुःखादीनामसद्वेद्यास्नवस्यायुक्तिरिति, तन्न, किं कारणम् ? यथा - अनिष्ट द्रव्य-सम्यकाद् द्वेषोत्पत्ती दुःखोत्पतिः, न तथा बाह्याभ्यन्तरतपःप्रवृत्तौ धर्मध्यानपरिणतस्य यतेरवशनः केशलुंचनादि-करण-कारणापादित-कायक्लेशेऽस्ति द्वेषसम्भवः, तस्मान्नासद्वेद्य-बन्धोऽस्ति । क्रोधाद्यावेशे सति स्व-परोभय-दुःखादीनां पापा नवहेतुत्वमिष्टं, न केवलानाम् । तथाऽनादि-सांसारिक-जाति-मरण-वेदनाजिघांसां प्रत्यागूर्णो यतिः तदुपायेप्रवर्तमानः स्वपरस्य दुःखादिकृतुत्वे सत्यपि क्रोधाद्यभावात् पापस्याबन्धकः । - राजवार्तिक ६/११/१६-२०/५२१/१९
(ज) मिथ्यात्वादेर्यदिह भविता दुःखमग्नं, तपोभ्यो ।
जावं तस्मादुदक- कणिकैकेव सर्वाब्धि नीरात् ॥
स्तोकं तेन प्रभवमखिलं कृच्छ लब्धे नरत्वे । मद्येतत्तर्हि स्खलति तदहो का क्षतिर्जीव ते स्यात् ?
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-आराधनासार ७/२९
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