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ॐ २५४ 8 कर्मविज्ञान : भाग ७ ®
राग-द्वेष के प्रवाह में बह जाते हैं। यद्यपि कुछ आत्मार्थी-साधक अपने उस दोष को परिमार्जित एवं परिष्कृत करने के लिए आलोचना, प्रतिक्रमण, प्रायश्चित्त, तपश्चरण, प्रत्याख्यान आदि करके आत्म-शुद्धि कर लेते हैं; परन्तु कई महानुभाव निर्जरा के अवसरों को चूक जाते हैं, जीवन के अन्तिम क्षणों में भी जब सब कुछ यहाँ छोड़कर परलोक के लिए विदा होने का अवसर आता है, उस समय भी जीवन में की गई भूलों, अपराधों और दोषों की आलोचना, प्रतिक्रमण, पश्चात्ताप तथा प्रायश्चित्त, क्षमापना, वन्दना, भावना, अनुप्रेक्षा एवं आहार-कषाय आदि की संलेखना करके विशुद्ध निर्जरा करने का अवसर चूक जाते हैं। और तो और गृहस्थ-साधक हो या श्रमण-साधक सभी के लिए अपनी साधना के दौरान अम्बड़ परिव्राजक के शिष्यों की तरह या कामदेव आदि श्रमणोपासकों की तरह कई परीषह या उपसर्ग अपने द्वारा स्वीकृत व्रत, नियम आदि से विचलित करने के लिए आते हैं, उस समय भी अनायास आये हुए निर्जरा के अवसर को न चूककर यदि समभाव से सह लेते हैं, धैर्य और शान्ति से उस कष्ट को भोग लेते हैं तो. अनेक कर्मों की विशुद्ध निर्जरा हो सकती है। 'आचारांगसूत्र' में इसीलिए कहा गया है-“मज्झत्थो निज्जरापेही।"२–निर्जरा की प्रेक्षा-अनुप्रेक्षा या अपेक्षा करने वाला साधक राग और द्वेष दोनों में या कषायों के प्रसंग में मध्यस्थ रहे।" परीषह एक प्रकार से साधक को अपने स्वीकृत धर्मपथ से च्युत न होने-पीछे न हटनेविचलित न होने तथा कर्मनिर्जरा का सुन्दर अवसर उपस्थित करने हेतु आते हैं। 'तत्त्वार्थसूत्र' में उनका सप्रयोजन लक्षण यों बताया गया है-"(रत्नत्रयरूप) मोक्षमार्ग से च्युत-विचलित न होने तथा कर्मों की निर्जरा के लिए सम्यक प्रकार से समभावपूर्वक सहने योग्य (बाईस) परीषह हैं।' इनके सिवाय देवकृत, मनुष्यकृत या तिर्यंचकृत उपसर्गों को भी समभाव से सहकर उन पर विजय प्राप्त करने से अनेक कर्मों की निर्जरा होती है। सकामनिर्जरा के विविध अवसर आने पर निर्जरा कैसे करें ?
'स्थानांगसूत्र' में अनुकूल या प्रतिकूल परीषह या उपसर्ग को समभाव से सहने का मनोविज्ञान-सम्मत ऑटो सजेशन (स्वयं प्रेरणा) से युक्त सुन्दर उपाय बताया
१. (क) देखें-औपपातिकसूत्र १३/३८ में अम्बड़ परिव्राजक के ७00 शिष्यों का पिपासा
__परीषह को अविचलभाव से सहन करने का वर्णन (सुत्तागमे, खण्ड २, पृ. २८-२९ में) (ख) देखें-उपासकदशांगसूत्र में पौषधव्रत के दौरान कामदेव श्रावक पर आये हुए देवकृत
उपसर्ग का वर्णन २. (क) आचारांगसूत्र, श्रु. १, अ. ८, उ. ८
(ख) देखें-आचारांगसूत्र, प्रथम श्रुतस्कन्ध का ८वाँ अध्ययन
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