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निर्जरा के विविध स्रोत ४ २४१
आम्रवों के विरमण (निरोध) से तो संवर होता है, निर्जरा कैसे हो सकती है ? ' 'बारस अणुवेक्खा' में इसका समाधान दिया गया है कि “जिन परिणामों से संवर होता है, उनसे निर्जरा भी होती है । जैसे तप के द्वारा आम्रवों का निरोध होने से संवर होता है, किन्तु आत्म-विशुद्धि का परिणाम होने से निर्जरा भी होती है । " वास्तव में यथार्थरूप से सकामनिर्जरा संवरसहित ही होती है, संवररहित नहीं । इसी तथ्य को 'पंचास्तिकाय' में उजागर किया गया है-संवर से युक्त आत्म-साधना में प्रवृत्त जो साधक आत्मानुभव करके ज्ञान को नियत रूप से ध्याता है, वही कर्मरज को धुन डालता (कर्मनिर्जरा कर पाता ) है । 'भगवती आराधना' में भी कहा है- जो साधक संवररहित है, उसकी कर्मों से मुक्ति (कर्मनिर्जरा) केवल तपश्चरण से नहीं हो सकेगी, ऐसा जिनवचन है । क्योंकि तालाब को सुखाने के लिए केवल अन्दर का कीचड़ और गंदगी ही बाहर निकाली जायेगी, परन्तु बाहर से आने वाले जलप्रवाह को पहले रोका नहीं जायेगा, तो तालाब कब सूखेगा ? इसी प्रकार आत्मारूपी जलाशय में बाहर से आने वाले आस्रवों को पहले रोका नहीं जायेगा और केवल पहले की पड़ी हुई अशुद्धि को ही दूर करने का ( कर्मनिर्जरण) कार्य किया जायेगा, तो आत्मा की शुद्धि कैसे हो सकेगी ? इसलिए सम्यक्त्वसंवर आदि पंचविध संवरपूर्वक निर्जरा की जायेगी तो वह प्रशस्त और श्रेयस्कर होगी।
सम्यग्ज्ञानसहित संवरपूर्वक सकामनिर्जरा के शास्त्रीय प्रमाण धार्मिक यावत्
के
'औपपातिकसूत्र' के अनुसार- जो अल्पारम्भी, अल्पपरिग्रही, जीव-अजीव-पुण्य-पाप-आनव-संवर- निर्जरा- क्रिया-अधिकरण-बन्ध-मोक्ष तत्त्वज्ञान में कुशल हैं, निःशंकित, निष्कांक्ष हैं, निर्ग्रन्थ-प्रवचन के प्रति पूर्ण श्रद्धालु हैं, श्रावकव्रतधारी, सामायिक, पौषध आदि का तथा अतिथिसंविभागव्रत का सम्यक् अनुपालनकर्त्ता हैं, अन्तिम समय में भक्तप्रत्याख्यान करके समाधिपूर्वक यथाकालं कालधर्म प्राप्त करते हैं। वे उत्कृष्टता बाईस सागरोपम की स्थिति वाले
१. पंच निज्जरट्ठाणा पण्णत्ता, तं. - पाणाइवायाओ मेहुणाओ परिग्गहाओ वेरमणं ।
(क) जेण हवइ संवरणं तेण दु णिज्जरणमिदि जाणे । (ख) तपसा निर्जरा च ।
(ग) जो संवरेण जुत्तो अप्पट्ट - पसाधगो हि अप्पाणं । मुणिऊण झादि नियदं णाणं, सो संधुणोदि कम्मरयं ॥ (घ) तवसा चेव ण मोक्खो संवरहीणस्स होइ जिणवयणे । णहु सोत्ते पविसंते, किसिणं परिसुस्सदि तलायं ॥
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अदिन्नादाणाओ
- समवायांगसूत्र, समवाय ५, सू. ६ - बारस अणुवेक्खा ६६ - त्तत्त्वार्थ ९/३
मुसावायाओ
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- पंचास्तिकाय १४५
- भगवती आराधना १८५४
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