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निर्जरा के विविध स्रोत २४७
"संवेग (मोक्ष के प्रति उत्कण्ठा) से जीव अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ का क्षय कर देता है और ( मिथ्यात्वजनित) नये कर्म का बन्ध नहीं होता। तन्निमित्तक मिथ्यात्वविशुद्धि करके वह दर्शनाराधक हो जाता है ।" "
"मनः समाधारणता ( मन को समाधि में स्थापित करने) से जीव ज्ञानपर्यायों को प्राप्त करके सम्यक्त्व- विशुद्धि करता है और मिथ्यात्व कर्म की निर्जरा करता है।” ‘परिपृच्छना' से सूत्र, अर्थ एवं तदुभयार्थ की विशुद्धि कर लेता है । फलतः वह कांक्षामोहनीय कर्म को व्युच्छिन्न कर डालता है ।” “आलोचना से ऋजुभाव ( सरलता) को प्रतिपन्न जीव अमायी होकर स्त्रीवेद और नपुंसकवेद कर्म नहीं बाँधता, तज्जनित पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा करता है ।" तपश्चरण से व्यवदान ( पूर्वबद्ध कर्मों का क्षय ) करके आत्म-शुद्धि प्राप्त कर लेता है। सुखशात ( विषयजन्य सुखों का त्याग करने) से ( परम्परा से ) चारित्रमोहनीय कर्म का क्षय कर देता है।
सकामनिर्जरा के विभिन्न रूप
“विनिवर्त्तना (विषयवासना से निवृत्ति = विरति ) से जीव पापकर्मों को नहीं बाँधता और पूर्व में बँधे हुए कर्मों की निर्जरा कर देता है । तदनन्तर वह चतुर्गतिक संसार-कान्तार (भव-अटवी) को पार कर जाता है ।" "विविक्त-शयनासन से जीव चारित्रगुप्ति (चारित्ररक्षा) कर लेता है । तदनन्तर वह विविक्त ( विकृतिरहित ) आहारकर्त्ता, दृढ़चारित्री, एकान्तसेवी तथा मोक्षभाव प्रतिपन्न साधक अष्टविध कर्मग्रन्थि की निर्जरा करता है ।"
मन-वचन-काय के योगों के प्रत्याख्यान से जीव अयोगत्व को प्राप्त कर लेता है। अयोगी जीव नया कर्म नहीं बाँधता, पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा करता है।
१. संवेगेणं'
णं मिच्छत्त-विसोहिं काऊण दंसणाराहए भवइ 1
ताणुबंध-कह-माण- माया - लोभे खवेइ । नवं च कम्मं न बंधइ । तप्पच्चइयं च -उत्तराध्ययन २९/१ नापज्जवे जणइत्ता सम्मत्तं विसोहेइ मिच्छत्तं च - वही २९/५६
२. (क) मणसमाहरणयाए एगग्गं
निज्जरेइ ।
(ख) पडिपुच्छणयाए सुत्तत्थ - तदुभयाइं विसोहेइ । कंखामोहणिज्जं कम्मं वोच्छिंदइ ।
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-वही २९/२०
उज्जुभाव पडिवन्ने य जीवे अमाई इत्थीवेय - नपुंसकवेयं च न बंधइ,
-वही २९/५ -वही २९/२७
वही २९/२९
(ग) आलोयणाए पुव्वबद्धं च णिज्जरेइ।
(घ) तवेणं वोदाणं जणयइ । (ङ) सुहसाएणं
चारित्त- मोहणिज्जं कम्मं खवेइ ।
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