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* २३६ 8 कर्मविज्ञान : भाग ७ 8
पात्रों की स्थिति के अनुसार उत्तरोत्तर क्रमशः असंख्येयगुणी निर्जरा
मोक्षलक्षी दृष्टि की अपेक्षा से सकामनिर्जरा का प्रारम्भ चतुर्थ गुणस्थान (अविरत सम्यग्दृष्टि) से होता है। 'तत्त्वार्थसूत्र' में कहा गया है-“सम्यग्दृष्टि, देशविरत श्रावक, सर्वविरत मुनि, अनन्त-वियोजक (अनन्तानुबन्धी-विसंयोजक), दर्शनमोह-क्षपक, उपशमक, उपशान्तमोह, क्षपक, क्षीणमोह और जिन; इन सब को (अन्तर्मुहूर्त-पर्यन्त परिणामों की विशुद्धि की अधिकता से, आयुकर्म को छोड़कर) प्रतिसमय उत्तरोत्तर क्रमशः असंख्यात-असंख्यातगुणी निर्जरा होती है।" इस सूत्रोक्त सिद्धान्तानुसार सकामनिर्जरा के संख्यात, असंख्यात और अनन्त भेद तक हो जाते हैं।
निर्जरा का मूल हेतु प्रशस्त = शुद्ध परिणाम या अध्यवसाय है। परिणामों की उत्तरोत्तर विशद्धि होने से क्रमशः निर्जरा भी असंख्येय-असंख्येय गुणी अधिक होती जाती है। सभी सम्यग्दृष्टि समान निर्जरा वाले होते हैं या उनकी निर्जरा में कुछ विशेषता = तरतमता होती है ? इसके लिए अध्यवसाय-विशुद्धि के तारतम्य के आधार पर पूर्वोक्त दस अवस्थाओं में निर्जरा का तारतम्य बताया गया है। 'समवायांगसूत्र' में-“कर्मविशुद्धि-मार्गणा (कर्मनिर्जरा) की अपेक्षा से चौदह जीवस्थान (गुणस्थान) बताये गये हैं।"" ।
'सर्वार्थसिद्धि' में कहा गया है-“जिसे पूर्वोक्त काललब्धि आदि की सहायता मिली है और जो परिणामों की विशुद्धि द्वारा वृद्धि को प्राप्त हो रहा है, ऐसा भव्य पंचेन्द्रिय संज्ञी पर्याप्तक जीव क्रमशः अपूर्वकरण आदि सोपान-पंक्ति पर चढ़ता हुआ बहुतर कर्मों की निर्जरा करने वाला होता है। सर्वप्रथम. वही प्रथम सम्यक्त्व (उपशम सम्यग्दर्शन) की प्राप्ति के निमित्त मिलने पर सम्यग्दृष्टि होता हुआ असंख्येयगणी कर्मनिर्जरा वाला होता है।" इसका तात्पर्य 'मोक्षशास्त्र' (गुजराती टीका) में यों बताया गया है
(१) यहाँ सर्वप्रथम सम्यग्दृष्टि की (चतुर्थ गुणस्थान की) दशा बताई गई है। यहाँ जो असंख्यातगुणी निर्जरा कही गई है, वह सम्यग्दर्शन प्राप्त होने से पहले
पिछले पृष्ठ का शेष(ख) कर्मशक्ति-निर्मूलन-समर्थः शुद्धोपयोगो भावनिर्जरा। तस्य शुद्धोपयोगस्य सामर्थ्येन
निरसीभूतानां पूर्वोपार्जित-कर्मपुद्गलानां संवरपूर्वकभावेनैकदेश-संक्षयो द्रव्यनिर्जरेति सूत्रार्थः।
-पंचास्तिकाय ता. वृ. १४४/२०९/१६ १. (क) सम्यग्दृष्टि-श्रावक-विरतानन्त-वियोजक-दर्शनमोह-क्षपकोपशमकोपशान्तमोह-क्षपक
क्षीणमोह-जिनाः क्रमशोऽसंख्येयगुण-निर्जराः। -तत्त्वार्थसूत्र, अ. ९, सू. ४५ (ख) कम्मविसोहि-मग्गणं पडुच्च चउदसजीवठाणा पण्णत्ता, तं.-मिच्छादिट्ठी - - - - अजोगीकेवली।
-समवायांग, समवाय १४
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