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निर्जरा के विविध स्रोत
निज एक : अनेक रूप और अनेक प्रकार
सामान्यतया निर्जरा एक ही है, किन्तु यथाकाल और औपक्रमिक भेद से वह दो प्रकार की है । यथाकाल का अर्थ है - स्वकाल - पक्व और तप आदि द्वारा कर्मों को पकाकर . ( उदय में लाकर ) की हुई निर्जरा औपक्रमिक कहलाती है । ज्ञानावरणीय आदि आठ मूल कर्म - प्रकृतियों को क्षीण करने की दृष्टि से वह आठ प्रकार की है । '
अकामनिर्जरा और सकामनिर्जरा की दृष्टि से निर्जरा के मुख्यतः दो भेद होते हैं। पिछले निबन्ध में हम अकामनिर्जरा के अनेक रूपों का तथा सकामनिर्जरा के कुछ रूपों और उनके स्वरूप का दिग्दर्शन करा आये हैं । 'द्रव्यसंग्रह टीका' में ( सकाम ) निर्जरा के दो प्रकार बताये हैं - भावनिर्जरा और द्रव्यनिर्जरा । जीव के जिन विशुद्ध परिणामों से कर्मपुद्गल झड़ते हैं, वे जीव के परिणाम भावनिर्जरा हैं और जो कर्म झड़ते (आत्मा से पृथक् होते) हैं, वे द्रव्यनिर्जरा हैं। ‘पंचास्तिकाय' के अनुसार- र - कर्मशक्ति के निर्मूलन में समर्थ जीव का शुद्धोपयोग भावनिर्जरा है और उस शुद्धोपयोग के सामर्थ्य से निरसीभूत पूर्वोपार्जित कर्मपुद्गलों का संवरपूर्वक भाव से एकदेशतः क्षय होना द्रव्यनिर्जरा है। वस्तुतः कर्मों के रस ( कषायजनित अनुभाव ) को क्षीण करने के विभिन्न प्रकारों की अपेक्षा से ( सकाम ) निर्जरा के संख्यात, असंख्यात और अनन्त भेद हो सकते हैं । २
१. ( क ) एगा णिज्जरा ।
- स्थानांग, स्था. १, सू. १५ (ख) सामान्यादेका निर्जरा ? द्विविधा- यथाकालौपक्रमिकभेदात् । अष्टधा - मूलकर्मप्रकृतिभेदात् । एवं संख्येयाऽसंख्येयानन्तविकल्पा भवन्ति कर्मरस-निर्हरण-भेदात् ।
- राजवार्तिक १/७/१४/४०/१९ - भगवती आ. १८४८
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(ग) तह कालेण तवेण य पच्चंति कदाणि कम्माणि ।
२. (क) भावनिर्जरा सा का? येन भावेन जीवपरिणामेन कम्म पुग्गलं कर्मणोगलनं यच्च सा द्रव्यनिर्जरा ।
सडति विशीर्यते पतति गलति - द्रव्यसंग्रह टीका ३६/१५०/१०
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