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ॐ वचनन-संवर की सक्रिय साधना १५३
विचारणीय है । यदि चाहे जो व्यक्ति, चाहे जिस समय और चाहे जिस तरह से, चाहे जिन शब्दों में विद्यार्थी, पुत्र आदि को उनकी भूल बताने या कहने लगे, इस पर से यह मान लेना भयंकर भूल होगी कि उक्त विद्यार्थी या पुत्र आदि की भूलें होती रुक जाएँगी अथवा उसकी भूल बताने से उनका विनाश होता रुक जाएगा, विकास तेजी से होता जाएगा। उलटे, चाहे जिस व्यक्ति द्वारा चाहे जिस तरीके से उक्त विद्यार्थी या पुत्र आदि की भूलें बताने पर उसके मन-मस्तिष्क में बहुधा रोष, द्वेष, तिरस्कार, दुर्भाव, शत्रुता आदि विपरीत एवं अनिष्ट प्रतिक्रिया पनपने लगती है। वे उसे अनधिकृत चेष्टा समझने लगते हैं। जिससे जैसे-तैसे रूप में, चाहे जिस व्यक्ति द्वारा भूल बताने में लाभ तो दूर रहा, भयंकर हानि उठानी पड़ती है। सामने वाले व्यक्ति का अपना दर्परूपी सर्प फुफकारने लगता है।
भूल किसे, कैसे और किस प्रकार कहना ?
अतः ऐसी अनिवार्य परिस्थिति में, उसी व्यक्ति की भूलें देखी जा सकती हैं, उसे कही जा सकती हैं, जिस पर अपना अधिकार हो अथवा जिस समर्पित व्यक्ति की अपने प्रति श्रद्धा, भक्ति और निष्ठा हो, वफादारी हो, जिसने उक्त विश्वस्त या आप्त व्यक्ति को अपने आध्यात्मिक विकास की जिम्मेदारी सौंपी हो तथा जो व्यक्ति स्वयं या तो वीतराग आप्तपुरुष हो अथवा छद्मस्थ हो, तो भी स्वयं उन भूलों या त्रुटियों को जान-बूझकर नहीं करता हो। जिसकी दृष्टि सम्यक् हो, सद्भावना और सदाशयता से परिपूर्ण हो, जिसमें दोषदृष्टि या तेजोद्वेषदृष्टि अथवा विकासावरोधक दृष्टि बिलकुल न हो। ऐसे व्यक्ति द्वारा भूलें देखी भी जा सकती हैं और कही भी जा सकती हैं। इसे एक शास्त्रीय उदाहरण से समझाना उचित होगा
भगवान महावीर ने गौतम स्वामी की भूल सुधारी
गणधर गौतम स्वामी भगवान महावीर के पट्टशिष्ट थे; भगवान के प्रति समर्पित और विनीत | एक बार वाणिज्य ग्राम नगर में श्रमणोपासक आनन्द अपना अन्तिम समय निकट जानकर समाधिमरण (संधारा) साधना अंगीकार किये हुए थे। उस दौरान उसे विशुद्ध अध्यवसाय के कारण द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अमुक सीमा तक का अवधिज्ञान प्राप्त हो गया था । भिक्षाचर्या करते हुए गौतम स्वामी ने जनता के मुख से ऐसा सुना तो वे आनन्द श्रमणोपासक को दर्शन देने पहुँचे। उस समय आनन्द ने जब अनायास ही इसका जिक्र किया तो गौतम स्वामी ने कहा - " आनन्द ! तुम्हारा यह कथन यथार्थ नहीं है, इतनी सीमा का अवधिज्ञान श्रमणोपासक को नहीं हो सकता । अतः तुम अपने इस अयथार्थ कथन के लिए प्रायश्चित्त करो। " आनन्द ने सविनय कहा - " भगवन् ! प्रायश्चित्त का अधिकारी तो वही होता है जिसने जान-बूझकर या अनजाने में मिथ्या कथन किया हो। आप
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