________________
* योग्य क्षेत्र में पुण्य का बीजारोपण १७९
कई-कई सौ गोवंश के व्रज थे, वे सब गायें या गायों की सन्तानें संयत, विरत या पापकर्मों की त्यागी नहीं थी तथा उनके यहाँ काम करने वाले नौकर-चाकर आदि भी क्या सभी संयत, विरत आदि थे या व्रतबद्ध साधु-श्रावक थे ? फिर भी वे उनकी आहार-पानी आदि से सहायता करते थे । क्षायिक सम्यग्दृष्टि श्रीकृष्ण जी के द्वारा एक जराजर्जर अशक्त बूढ़े की ईंटें उठाकर अनुकम्पाभाव से सहायता करने का स्पष्ट उल्लेख ‘अन्तकृद्दशासूत्र’ में है । सम्यग्दृष्टि श्रीकृष्ण जी ने अपने शरीर से शुभ भाव से उक्त असंयत, अविरत वृद्ध को सहायता देकर कायपुण्य उपार्जित किया या एकान्त पाप किया?१ यदि अनुकम्पाभाव से किसी भी पीड़ित या दुःखित, असहाय आदि को आहारादि से सहायता देना एकान्त पाप होता तो आनन्द, कामदेव आदि व्रतधारी श्रमणोपासक ऐसा पापकर्म क्यों करते ? किन्तु उन्होंने पहला और बारहवाँ व्रत स्वीकार करके श्रमण माहण के सिवाय भी अतिथि रूप श्रमणोपासक को अथवा किसी पीड़ित, दुःखित या आश्रित को भी सहायता देकर पुण्य का उपार्जन ही किया है, पाप का नहीं। शास्त्र में जहाँ किसी श्राविका या सम्यग्दृष्टि महिला द्वारा अपने गर्भस्थ शिशु (जो अभी असंयत, अविरत है) का पालन-पोषण करने का वर्णन आता है, वहाँ स्पृष्ट मूल पाठ है –“ तस्स गब्भस्स अणुकंपणट्टाए ।" - उस गर्भ की अनुकम्पा के लिए। अपने गर्भस्थ शिशु का या संतान का असहाय अवस्था में तथा बाद में भी उसके आत्म-विकास के लिए अनुकम्पावश शुभ भाव से पालन-पोषण, रक्षण करना क्या एकान्त पापकर्मबन्धक है ? क्या उससे पुण्यकर्मबन्ध नहीं होता ? २
संसार के समस्त अनुकम्पनीय प्राणियों पर अनुकम्पा करने से पुण्यबन्ध और सातावेदनीय फल प्राप्त होता है
‘भगवतीसूत्र' के सातवें शतक के अनुसार प्राण, भूत, जीव और सत्त्व (यानी समस्त सांसारिक प्राणियों पर अनुकम्पा करने से, अनुकम्पानुसार वृत्ति प्रवृत्ति करने से जीव सातावेदनीय का उपार्जन करता है और सातावेदनीय पुण्य का फल है। पुण्य अन्नपुण्य आदि नौ प्रकार से होता है। स्पष्ट है कि श्रमण और माहन के सिवाय भी प्राणी, भूत, जीव और सत्त्व को अनुकम्पाबुद्धि से अशनादि देने से तथा उन पर मन, वचन, काया के योगों की शुभ प्रवृत्ति दयावश करने से उक्त
१. (क) देखें - उपासकदशांग में आनन्द आदि श्रमणोपासकों के द्वारा व्रतग्रहण का वर्णन (ख) देखें - अन्तकृद्दशांगसूत्र में गजसुकुमाल मुनि के वर्णन का प्रसंग
२. (क) प्रश्नोत्तर - मोहनमाला' से भाव ग्रहण, पृ. १८८-१८९
(ख) तस्स गब्भस्स अणुकंपणट्टाए जयं चिट्ठा, जयं आसइ, जयं सुवइ । नाइचिंतं नाइसोगं 'नाइमोहं नाइभयं, नाइपरित्तासं
"तं गब्भं सुहंसुहेण परिवहइ ।
Jain Education International
-ज्ञातासूत्र, श्रु. १, अ. १, सू. १९
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org