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®. २२२ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ७ *
निष्कर्ष यह है कि नरक के नैरयिक दीर्घकाल तक बहुत कष्ट भोगने पर भी. उतनी निर्जरा नहीं कर पाते, जितनी निर्जरा एक सम्यग्दृष्टि-सम्पन्न, देशविरत श्रावक या सर्वविरति श्रमण आत्म-शुद्धि की दृष्टि से, सम्यग्ज्ञानपूर्वक अल्पवेदन (कष्टानुभव) करके भी कर लेता है, क्योंकि नारकी के नैरयिकों के पूर्वबद्ध कर्म इतने चिकने, कठोर, गाढ़ और जड़ जमाये हुए होते हैं कि वे सहसा छूट नहीं पाते, दूसरी बात यह है कि अधिकांश नारकों की दृष्टि सम्यक नहीं होती, ज्ञान भी सम्यक् नहीं होता, मिथ्याज्ञान (विभंगज्ञान) वश वे दूसरे नारक के साथ पूर्वबद्ध वैर या अपकार का स्मरण करके उन कर्मों का फल भोगने के समय परस्पर एक-दूसरे से लड़ते हैं, परस्पर वाक्प्रकार करते हैं, कलह करते हैं, लड़ते-भिड़ते हैं तथा पूर्व जीवन में की हुई घोर हिंसा, असत्याचरण, चौर्यकर्म, व्यभिचार आदि के कारण बँधे हुए गाढ़ पापकर्मों का फल भुगवाने के लिए परमाधामी निमित्त बनकर तरह-तरह से यातना देते हैं, तब-तब वे परवश होकर अनिच्छा से हाय-हाय करते, छटपटाते, जोर-जोर से रोते-चिल्लाते-गिड़गिड़ाते हुए कर्मफल भोगते हैं। इस कारण पुराने कर्मों की किंचित निर्जरा होने के साथ-साथ उनके नये अशुभ कर्म और बँधते जाते हैं। यही कारण है कि उनकी कर्मनिर्जरा अकामरूप होने से उन-उन पूर्वबद्ध और नवबद्ध कर्मों का फल विषमभाव से, यम, नियम, आत्म-शुद्धि, संवर-निर्जरा की इच्छा के बिना-इच्छा से अज्ञानपूर्वक भोगने में कष्ट भी अधिक होता है और दीर्घकाल भी उन पापकर्मों का फल भोगने में लगता है। जैसा कि 'उववाईसूत्र' में बताया है-जो जीव असंयत हैं, अविरत हैं, पापकर्मों का त्याग (प्रत्याख्यान) नहीं किया है, अतएव (बार-बार अज्ञानवश) पापकर्म करते रहते हैं, जो साम्परायिक क्रियाओं से युक्त हैं, असंवृत (संवरधर्म से रहित) हैं, एकान्तरूप से दूसरे जीवों को दंडित-पीड़ित करते रहते (दण्ड = हिंसक) हैं, एकान्त बाल (अज्ञानी) हैं, एकान्त सुप्त (प्रमादी) हैं, अनवरत त्रस-प्राणियों की घात करते रहते हैं, ऐसे जीव कालमास में (उस भव की आयु कर्म की स्थिति पूर्ण होने पर) काल करके नरक के नैरयिकों में उत्पन्न होते हैं। 'सूत्रकृतांग' में उक्त ‘नरक विभक्ति' के तथा 'उत्तराध्ययन' में मृगापुत्र द्वारा नरकों में होने वाले विभिन्न दुःखों, कष्टों और यातनाओं के वर्णन के अनुसार दीर्घकाल तक अनिच्छा से, परवश होकर, रोते-चिल्लाते-विलाप करते हुए कष्ट भोगते हैं। इस कारण दीर्घकाल तक कष्ट सहने पर भी निर्जरा (अकामनिर्जरा) बहुत थोड़ी होती है, नये-नये कर्मों का बंध होता रहता है।'
१. (क) नित्याशुभतर-लेश्या-परिणाम-देह-वेदना-विक्रियाः। परस्परोदीरितदुःखाः संक्लिष्टासुरोदीरितदुःखाश्च प्राक्चतुर्थ्याः।
-तत्त्वार्थसूत्र, अ. ३, सू. ३-५
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