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ॐ निर्जरा : अनेक रूप और स्वरूप ® २२९ *
निह्नव श्रमण भी अकामनिर्जरायुक्त एवं अनाराधक जो व्यक्ति श्रमण, भिक्षु या साधुवेश में रहकर सिद्धान्त-प्रतिकूल प्ररूपणा करके निह्नव हो जाते हैं, वे भी अकामनिर्जराकारक और अनाराधक होते हैं। वे निह्नव सात प्रकार के हैं-(१) बहुरत, (२) जीवप्रदेशक, (३) अव्यक्तवादी, (४) सामुच्छेदिक, (५) द्विक्रिया-प्ररूपक, (६) त्रैराशिक, और (७) अबद्धिक (व्रतबद्ध न रहने वाले स्वच्छन्दी)। ये सात प्रवचन निह्नव होते हैं, जो वेश-भूषा
और चर्या श्रमणों की-सी रखते हैं, किन्तु मिथ्यादृष्टि होते हैं, बहुत-सी असद्भूत बातें करते हैं, मिथ्यात्व के अभिनिवेश (दुराग्रह) से स्व, पर और उभय को बरगलाते, भ्रमित करते हैं। इस प्रकार बहुत वर्षों तक तथाकथित श्रामण्य-पर्याय में प्रवृत्त रहते हैं, फिर यथासमय मृत्यु प्राप्त करके उत्कृष्टतः ऊपर के ग्रैवेयक देवों में देवरूप से उत्पन्न होते हैं, जहाँ उनकी स्थिति ३१ सागरोपम की होती है, परन्तु वे परलोक में अनाराधक होते हैं।'
.. परिव्राजक आदि भी अकामनिर्जरा करते हैं 'औपपातिकसूत्र' के अनुसार-जो चारों वेदों के सांगोपांग सरहस्य पारगामी हैं, उनकी स्मृति और धारणा से युक्त हैं। इतिहास, निघण्टु आदि वेदांगों में तथा षष्ठितंत्र (सांख्यशास्त्र) में विशारद हैं; शिक्षा, कल्प, व्याकरण, छन्द, निरुक्त और ज्योतिष आदि ग्रन्थों तथा अन्य सभी ब्राह्मणशास्त्रों में सुपरिनिष्ठित (पारंगत) हैं। परिव्राजकों को बाह्यशौच-प्रधान आचार-संहिता का पालन करते हुए विचरण करने वाले वे परिव्राजक भी बहुत वर्षों तक आयुष्य-पर्याय का पालन करके दस सागरोपम की स्थिति वाले ब्रह्मलोक-कल्प नामक देवलोक में देवरूप में उत्पन्न होते हैं; किन्तु ये सभी आठ प्रकार के उक्त ब्राह्मण परिव्राजक तथा आठ प्रकार के क्षत्रिय-परिव्राजक सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञानयुक्त नहीं होते। उनका अज्ञानपूर्वक किया हुआ वह तप तथा कष्ट-सहन प्रायः प्राणिहिंसाजन्य, यशकीर्तिकांक्षी, स्वर्गकामनामूलक तथा इहलोक-परलोक-फलाकांक्षामूलक होने से अकामनिर्जराकारक होता है। इस कारण वे अनाराधक ही होते हैं। १. से जे इमेणिण्हगा भवंति, तं.-(१) बहुरया, (२) जीवपएसिया, (३) अव्वत्तिया,
(४) सामुच्छेइया, (५) दोकिरिया, (६) तेरासिया, (७) अबद्धिया; इच्चेते सत्त पवयण-णिण्हगा केवलं चरिया-लिंग-सामण्णा मिच्छदिट्ठी बहूहिं असब्भावुब्भावणाहिं मिच्छत्ताभिणिवेसेहिं य अप्पाणं च परं च तदुभयं च वुग्गाहेमाणा वुप्पाएमाणा विहरित्ता बहुइं वासाइं सामण्ण-परियागं पाउणंतिकालं किच्चा उवरिमेसु गेवेज्जेसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति, एक्कत्तीसं सागरोवमाइं ठिई। परलोगस्स अणाराहगा। सेसं तं चेव।
-औपपातिकसूत्र ४०/१९ २. से जे इमे... परिव्वायगा भवंति, इमे अट्ठ-माहण-परिव्वायगा, इमे __ अट्ठखत्तिय-परिव्वायगा। ते णं परिव्वायगा चउण्हं वेयाणं सारगा, पारगा, धारगा,
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