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* २१६ * कर्मविज्ञान : भाग ७ ॐ
निर्जरण करते, चरममरण से मरते, चरमशरीर को छोड़ते एवं मारणान्तिक कर्म
को वेदते, निर्जरते, शरीर छोड़ते, मरण से मरते हुए ज्ञानादि से भावित आत्मा वाले (केवलज्ञानी) अनगार के जो चरम (अन्तिम) निर्जरा के सूक्ष्म और समग्र लोकव्यापी पुद्गलों (केवली के चरमनिर्जरा के सूक्ष्म पुद्गलों) के अन्यत्व और नानात्व को क्या छद्मस्थ मनुष्य जानता, देखता या ग्रहण कर सकता है ? संक्षेप में इसका समाधान इस प्रकार किया गया है-नैरयिक से लेकर पाँच स्थावर, तीन विकलेन्द्रिय, तिर्यंच-पंचेन्द्रिय एवं भवनपति, वाणव्यन्तर तथा ज्योतिष्क देव उन निर्जरा-पुद्गलों को जानते-देखते नहीं, किन्तु आहरण (ग्रहण) करते हैं। मनुष्यों में कई उन निर्जरा पुद्गलों को जानते-देखते हैं, कई नहीं जानते-देखते, किन्तु आहरण (ग्रहण) तो सभी मनुष्य कर पाते हैं। संज्ञीभूत और उपयोगयुक्त मनुष्य ही उस निर्जरा को जान-देख सकते हैं ।
इसका फलितार्थ यह है कि मनुष्य दो प्रकार के हैं-संज्ञीभूत और असंज्ञीभूत। केवली भगवान तो उन समग्र लोकव्यापी सूक्ष्म निर्जरा-पुद्गलों को जान-देख पाते ही हैं। प्रश्न है-छद्मस्थ मनुष्यों का। उनमें जो संज्ञीभूत यानी विशिष्ट अवधिज्ञानी हैं तथा उपयोगयुक्त हैं, वे उन सूक्ष्म निर्जरा-पुद्गलों को जान-देख सकते हैं। जो वैमानिक अमायि-सम्यग्दृष्टि हैं, परम्परोपपन्नक हैं, पर्याप्तक हैं तथा विशिष्ट अवधिज्ञानी होते हुए भी उपयुक्त हैं, वे भी उन निर्जरित कर्मपुद्गलों को जान-देख सकते हैं। इसके विपरीत जो असंज्ञीभूत (विशिष्ट अवधिज्ञानरहित) मनुष्य या त्रिविधदेव आदि हैं एवं अनुपयुक्त हैं, वे उन कार्मण (निर्जरा) पुद्गलों कों जान-देख नहीं सकते।
१. (क) अणगारस्स णं भावियप्पणो सव्वं कम्मं वेदेमाणस्स निज्जरेमाणस्स सव्वं मारं
मरमाणस्स, सव्वं सरीरं विप्पजहमाणस्स, चरिमं कम्मं वेदेमाणस्स .. निज्जरेमाणस्स, चरिमं मारं मरमाणस्स, चरिमं सरीरं विप्पजहमाणस्स; मारणंतियं कम्मं वेदेमाणस्सजाव मारणंतियं सरीरं विप्पजहमाणस्स जे चरिमा निज्जरा पोग्गला, सुहुमा णं ते पोग्गला सव्वं लोगं पि णं ओगाहित्ताणं चिट्ठति। छउमत्थे णं माणुस्से ते सिं निज्जरापोग्गलाणं किं चि (आणत्तं वा णाणत्तं वा) ण जाणंति, ण पासंति आहारेंति। (नेरइया वि एवं जाव पंचिंदिय तिरिक्खजोणियाणं, वाणमंतर जोइसिया वि एवं) मणुस्सा दुविहा पण्णत्ता, तं जहा–सण्णीभूया, असण्णीभूया य। असण्णीभूया न जाणंति न पासंति।सण्णीभूया दुविहा-उवउत्ता, अणुवउत्ता य। जे ते अणुवउत्ता, ते न जाणंति न पासंति, जे ते उवउत्ता, ते जाणंति ३।
-भगवतीसूत्र ७/३ (ख) स्पष्टीकरण के लिए देखें-व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र, श. ७, उ. ३, सू. ८ से ९/६ तक, पृ.
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