________________
ॐ निर्जरा : अनेक रूप और स्वरूप ® २१५ ®
देवी-देव या परनिमित्त के द्वारा किसी जीव को दुःख देने, वेदना देने या दुःख या वेदना भोग लेने की अन्य धर्मों की भ्रान्त मान्यता का निराकरण हो जाता है।'
कई नास्तिक एवं बुद्धिवादी आस्तिकों के दिमाग में यह प्रश्न बार-बार उभरता है कि जैसे ईश्वर या खुदा अथवा गॉड संसारी जीवों को कर्म कराता हुआ, फल भुगवाता हुआ अथवा सुख-दुःख देता हुआ नहीं दिखता; वैसे ही कर्मों (कर्मवर्गणा) के पुद्गल वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श से युक्त होते हुए भी सामान्य मानव द्वारा इन चर्मचक्षुओं से नहीं दिखाई देते। अत्यन्त शक्तिशाली सूक्ष्मदर्शक यंत्र से भी ये कर्म लगते, बँधते और छूटते दिखाई नहीं देते। अतः हम कैसे जानें कि अमुक कर्म बँधे हैं, अमुक उदय में आए हैं, अमुक कर्मों की निर्जरा हो चुकी है ? कर्म कोई पशु नहीं हैं कि इन्हें लाठी मारकर दूर भगा दिया जाए अथवा ये मनुष्य भी नहीं हैं कि उन्हें जबरन पकड़कर एक जगह अलग बिठा दिया जाए अथवा ये धूल भी नहीं हैं कि इन्हें झटककर दूर कर दिया जाए ! तब आत्मा से चिपटे हुए ये अदृश्य कर्म कैसे पकड़े जाएँ और कैसे दूर किये जाएँ?
केवली की चरमनिर्जरा के सूक्ष्म पुद्गलों को कौन जान-देख पाता है ? 'भगवतीसूत्र' में माकन्दिकपुत्र अनगार द्वारा एक प्रश्न उठाया गया है कि "भगवन् ! सर्वकर्मों को वेदते (भोगते) हुए, सर्वकर्मों की निर्जरा करते हुए, समस्त मरणों से मरते हुए, सर्वशरीरों को छोड़ते हुए तथा चरमकर्म को वेदते, १. (क) न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः।
न कर्मफलसंयोग, स्वभावस्तु प्रवर्तते॥१४॥ नादत्ते कस्यचित् पापं, न चैव सुकृतं विभुः।
अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः।।१५॥ -भगवद्गीता ५/१४-१५ (ख) यथा मृत्पिण्डतः कर्ता कुरुते यद्यदिच्छति।
एवमात्मकृतं कर्म मानवः प्रतिपद्यते॥ -महाभारत अनु. पर्व, अ. १/७४ (ग) आत्मनैव कृतं कर्म ह्यात्मनैवोपभुज्यते।
इह वा प्रेत्य वा राजंस्त्वया प्राप्तं यथा तथा॥ -वही, भीष्म पर्व ३७-७७ (घ) स्वयं कर्म करोत्यात्मा, स्वयं तत्फलमश्नुते। स्वयं भ्रमति संसारे, स्वयं तस्माद्विमुच्यते॥
-चाणक्यनीति (ङ) त्यक्त्वा कर्मफलासंगं, नित्यतृप्तो निराश्रयः। कर्मण्यभि प्रवृत्तोऽपि नैव किंचित्करोति सः॥
-गीता ४/२० (च) योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः। सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते॥
-वही ५/७ २. (क) 'रत्नाकरावतारिका' से ईश्वरकर्तृत्व खण्डन का भाव ग्रहण
(ख) 'आत्मतत्त्वविचार' (विजयलक्ष्मणसूरि जी म.) से भाव ग्रहण, पृ. ४९९
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org