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ॐ निर्जरा : अनेक रूप और स्वरूप ® २१७ ॐ
उपर्युक्त पाठ से यह स्पष्ट फलित होता है कि केवली की चरमनिर्जरा के सूक्ष्म पुद्गलों को भले ही छद्मस्थ सामान्य अवधिज्ञानी, जो अनुपयुक्त हो, जान-देख न सकता हो, परन्तु अपने व कदाचित् दूसरों के कर्मोदय के तथा कर्मनिर्जरा के पुद्गलों को सम्यग्दृष्टि, संवरधर्मी, देशविरत या सर्वविरत छद्मस्थ मति-श्रुत या अवधिज्ञान से युक्त हो, वह स्व-पर-अनुभवज्ञान से, शास्त्रज्ञान से, ज्ञानियों के उपदेश से या अनुमानादि प्रमाण से जान-देख सकता है। जैसे कि 'आचारांगसूत्र' में कहा गया है-“संसार में कई लोगों को यह संज्ञा (समझ-बूझ) नहीं होती कि मैं किस दिशा या अनुदिशा से आया हूँ? मैं कहाँ से आया हूँ, कहाँ जाऊँगा? परन्तु ऐसा ज्ञान उसी व्यक्ति को होता है, जो आत्मवादी, लोकवादी, कर्मवादी, क्रियावादी (सम्यग्दृष्टि) हो। उसे यह ज्ञान स्व-सन्मति से, दूसरों (श्रुतधरों) के कहने से या ज्ञानी से या शास्त्र के सुनने से होता है।" 'संज्ञा' को मतिज्ञान का समानार्थक कहा गया है। इसलिए सम्यग्दृष्टि, मति-श्रुतज्ञानी भी उपयोग लगाए तो कर्मों के वेदन, उदय तथा निर्जरा आदि को जान सकता है, अनुभव कर सकता है। अतः पूर्वबद्ध कर्म या नये आते हुए कर्म ही इन चर्मचक्षुओं से जान-देख न सके, किन्तु नये आते हुए कर्मों (आस्रवों) को न रोकने (संवर न करने) से तथा पुराने बँधे हुए कों का सम्यक तप आदि से क्षय (निर्जरा) न करने से भी जो परिणाम आता है, उसे तो साधारण मानव भी इस जगत् के जीवों की विचित्रता को तथा स्वयं के शुभाशुभ कर्मों के उदयवश प्राप्त सुख-दुःखरूप फल को युक्ति से जान-देख सकता है। बिजली भले ही आँखों से न दिखाई दे, किन्तु उसके विविध कार्यों को देखकर अनुमान किया जाता है कि बिजली है। इसी प्रकार कर्म और कर्मनिर्जरा आदि भले ही आँखों से न दिखाई दे, किन्तु उनके शुभाशुभ कर्मफलों (परिणामों) को तो हम जीवन और जगत् में प्रत्यक्ष जानते-देखते हैं।'
१. (क) इहमेगेसिं णो सण्णा भवइ, तं.-पुरत्थिमाओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि..
(जाव) अहो दिसाओ वा आगओ अहमंसि; अण्णयरीओ वा दिसाओ अणुदिसाओ वा आगओ अहमंसि। एवमेगेसिं णो णायं भवइ-अस्थि मे णत्थि मे आया उववाइए। केहं आसी? के वाइओ चुए इह पेच्चा भविस्सामि? से जं पुण जाणेज्जा-सह संमइयाए, परवागरणेणं, अण्णेसिं अंतिए वा सोच्चा, तं.पुरथिमाओ वा अहमंसि। से आयावाई लोयावाई कम्मावाई किरियावाई।
-आचारांग, श्रु. १, अ. १, सू. १-४ (ख) मतिः स्मृतिः संज्ञा-चिन्ताऽभिनिबोध इत्यनर्थान्तरम्। -तत्त्वार्थसूत्र, अ. १, सू. १३ (ग) . ईहाऽपोह-वीमंसा-मग्गणा य गवसणा। सन्ना मई पन्ना सव्वं आभिणिबोहियं॥
-नन्दीसूत्र, गा. ८0
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