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* योग्य क्षेत्र में पुण्य का बीजारोपण १८७
पुण्य किस भूमिका में हेय है, किस भूमिका में उपादेय ? निर्जरा को हेय नहीं माना है, परन्तु पुण्य तो तीर्थंकरों, केवलज्ञानियों के लिए अन्तिम गुणस्थान में हेय माना है । अतः पुण्य निश्चयदृष्टि से सर्वथा हेय है, जबकि व्यवहारदृष्टि से मध्यम भूमिका वाले चतुर्थ गुणस्थान से दशम गुणस्थान तक के जीवों के लिए कथंचित् हेय है, कथंचित् उपादेय है और उससे निम्न गुणस्थान वाले जीवों के लिए पाप तो सर्वथा हेय है, किन्तु पुण्य उपादेय है, ऐसा क्यों ? इसका विस्तृत वर्णन हम कर्मविज्ञान के तृतीय भाग में 'पुण्य हेय है या उपादेय ?' शीर्षक निबन्ध में कर आये हैं । पुण्य का स्वरूप भी इसी भाग में स्पष्ट रूप से प्रतिपादित किया गया है।
पूर्वबद्ध कर्म और उसके उदयकाल के बीच के लम्बे सत्ताकाल में कर्मफल- परिवर्तन सम्भव
जीव जब तक छद्मस्थ है, संसारस्थ है, तब तक उसमें न्यूनाधिक रूप में रागभाव रहता है। संसारी जीव में पूर्वबद्ध कर्मों के उदय के कारण रागादि परिणाम होते रहते हैं। जिनके कारण कर्मबन्ध और कर्मों के निमित्त से संसार - परिभ्रमण । इस प्रकार से साधारण व्यक्ति यह समझ लेता है कि यों तो कर्मों के चक्र से परतंत्रता में और संसार - परिभ्रमण से कभी मुक्त नहीं हो सकेगा। कभी कर्मबन्धन से मुक्त होकर पूर्ण स्वतन्त्र नहीं हो सकेगा । परन्तु कर्मविज्ञान मर्मज्ञों ने बताया है कि कर्म और वैभाविक आत्मा के संयोग से बन्ध होने पर भी जब तक उक्त कर्म का उदय नहीं होता तब तक जीव (आत्मा) उसे उत्कट परिणामों के बल पर उत्कर्षण, अपकर्षण या संक्रमण के रूप में परिवर्तन कर सकता है, क्योंकि उदय और बन्ध के बीच में सत्ता के कोश की विशाल मरुभूमिं पड़ी है, जिसमें अनेकों परिवर्तन भी हो सकते हैं। परन्तु अधिकांश संसारी जीवों को इस तत्त्वतथ्य का ज्ञान नहीं होता, न ही वे परिवर्तन के लिए उत्सुक होते हैं। अधिकांश जीव. स्थिति स्थापक होते हैं। इस प्रवाह को रोकने में जीव तभी समर्थ हो सकता है । यदि वह शुभ योग द्वारा संवर और निर्जरा की ओर बढ़े : पुण्य-पाप के द्वन्द्वों से ऊपर उठकर समता-वीतरागता की भूमिका में पदार्पण करे। तभी उसे पूर्ण और पारमार्थिक स्वतन्त्रता मिल सकती है।
परन्तु इस भूमिका पर पहुँचने की अभी स्थिति और क्षमता न हो तो पुण्य और पाप दोनों में से पुण्य का पल्ला पकड़ना ही हितावह होगा, क्योंकि सत्ता में पड़े हुए पूर्वबद्ध कर्म की स्थिति इतनी लम्बी होती है कि उक्त कर्म के उदय में आने से पहले-पहले उत्कर्षण, अपकर्षण, संक्रमण आदि की विविध श्रेणियों को पार करता हुआ जीव (आत्मा) अपने पूर्वबद्ध उक्त कर्मदल के कर्मफल को बदलने
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