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ॐ वचन-संवर की सक्रिय साधना 8 १५१ ॐ
__स्वयं की गलती को दबाने की कोशिश ऐसे व्यक्तियों से जब किसी काम में जरा-सी गलती हो जाती है, तो उनका स्वर बदल जाता है, फिर वे अपनी गलती पर लीपा-पोती करने के लिए कहते हैं-"भाई ! परिस्थिति ही ऐसी थी कि मैं क्या, अन्य कोई भी व्यक्ति होता तो उसको भी ऐसा ही करना पड़ता। अतः मैंने उस विकट परिस्थिति में जो कुछ किया है, वह ठीक है। उसमें गलती क्या है ? 'उत्तराध्ययन नियुक्ति' में कहा गया है-“दुर्जन दूसरों के राई या सरसों जितने दोष भी देखता रहता है, किन्तु अपने बिल्व (बेलफल) जितने बड़े दोषों को देखता हुआ भी अनदेखा कर देता है।'
___ परिस्थितिवश हुई दूसरे की गलती के प्रति असहिष्णु परन्तु जब उसी प्रवृत्ति को दूसरे व्यक्ति ने परिस्थितिवश गलत ढंग से की हो तो ऐसे लोगों के अहंकार का पारा चढ़ जाता है, उस समय वे गर्जने लगते हैं"इस प्रकार परिस्थिति के वश होकर यदि कोई व्यक्ति अपनी प्रवृत्तियों को गलत ढंग से करता-कराता या बिगाड़ता रहेगा तो उसके आगे बढ़ने का कार्य ठप्प हो जाएगा। अपने विकास के लिए मनुष्य को धैर्यपूर्वक सहिष्णु बनना चाहिए था। अपने मन-मस्तिष्क को अपने सिद्धान्त और आदर्श पर दृढ़ रखना चाहिए था। वह यदि थोड़ा साहस से काम लेता तो ऐसा गलत काम न होता। ऐसी परिस्थिति में उसने जो कुछ किया है, वह कतई उचित नहीं है। कोई भी समझदार व्यक्ति उसके कार्य करने के ढंग को सही नहीं कहेगा।" कई बार ऐसे व्यक्तियों का अहंकार उन्हें सामने वाले व्यक्ति की परिस्थिति, मजबूरी, क्षमता, भूमिका आदि का कतई विचार नहीं करने देता।
- सारी दुनियाँ की भूल सुधारने का ठेका अहंकारीवृत्ति है - ऐसे लोग तो मानो सारी दुनियाँ को सुधारने का ठेका ही लिये बैठे हों। वे उद्धत होकर कहते हैं-“हम यदि दूसरों के कार्यों में भूल नहीं निकालें या दोष प्रगट न करें तो जगत् के सभी लोग प्रायः अधिक से अधिक भूलें और गलतियाँ करने लगेंगे। जगत् सुधरेगा नहीं, बिगड़ता जाएगा। हम दूसरों की भूलों को बारीकी से देखते और बताते हैं, इसी कारण संसार का कारोबार सही ढंग से चल रहा है; अन्यथा कितनी गड़बड़झाला हुई होती दुनियाँ में। संसार की व्यवस्था उन्हीं के इस प्रकार के अन्य दोष प्रकटीकरण से क्षतिरहित चल रही है।" १. राइ-सरिसव-मित्ताणि परछिद्दाणि पाससि।
अप्पणो बिल्लमित्ताणि पासंतो वि न पाससि ॥ -उत्तराध्ययन नियुक्ति, गा. १४० २. 'हंसा ! तू झील मैत्री सरोवर में' (मुनि श्री अभयशेखरविजय जी म.) से भावांश ग्रहण,
पृ. १८२
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