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ॐ १५० ® कर्मविज्ञान : भाग ७ ॐ
सामंजस्यशीलता, स्व-पर-हितैषिता की हो, तभी अशुभ योग से निवृत्तिरूप शुभ योग-संवर हो सकता है; बशर्ते कि वह व्यक्ति सम्यग्दृष्टि हो। क्योंकि सम्यग्दृष्टि की योगत्रय की प्रवृत्ति शुद्ध निःस्वार्थता, निःस्पृहता एवं ज्ञाता-द्रष्टा भावों से सम्पृक्त होगी, इसलिए वह शुभ योग-संवर के साथ-साथ भाव-संवर (शुद्ध-संवर) एवं सकामनिर्जरा अवसर को हाथ से नहीं जाने देता। आशय यह है कि सम्यग्दृष्टि की शास्त्रों या ग्रन्थों अथवा आत्म-हित-प्रेरक पुस्तकों के स्वाध्याय, जप, धर्म-शुक्लउच्च-ध्यान, परोपदेश, भाषण-संभाषण अथवा लेखन, निःस्वार्थ सेवा आदि की प्रवृत्ति शुद्ध योग या भाव योग के संवररूप में होगी अथवां उत्कृष्ट ज्ञानादि में तन्मयता की भावना या अनुप्रेक्षा होने से सकामनिर्जरा भी सम्भव है। अतः मनः-संवर, वचन-संवर और काय-संवर तीनों एक सूत्र में बद्ध हैं। वचन-संवर आदि जीवन में कैसे क्रियान्वित हों ?
कर्मविज्ञानं के छठे खण्ड में हमने मनः-संवर आदि तीनों पर पर्याप्त प्रकाश डाला है। यहाँ तो मनः-संवरयक्त वचन-संवर की व्यावहारिक जीवन में क्रियान्विति कैसे हो सकती है ? कहाँ-कहाँ, कैसे-कैसे वचन और मन पर ब्रेक लगाना चाहिए? वचन-संवर में बाधक तत्त्व कौन-कौन से हैं ? उन्हें कैसे रोककर वचन-संवर की पगडण्डी पकड़नी चाहिए? इत्यादि विषयों पर प्रकाश डाला जाएगा। ___ अधिकांश मानव मन, वचन (वाणी) या काया का कोई महत्त्व नहीं समझते। वे निरर्थक बकवास, वितण्डावाद, कलह, गालीगलौज, निन्दा-चुगली, निरर्थक उपन्यास, नाटक या अश्लील साहित्य का पठन-पाठन करके अपनी अमोघ भगवती वाणी का आस्रव और तदनुसार बन्ध करते रहते हैं। दूसरों की भूल देखने में शूरवीर : स्वयं की भूल देखने में कायर ___ अधिकांश मनुष्य दूसरों की भूल देखने के लिए उद्यत रहते हैं। उन्हें दूसरों के दोष देखने में आनन्द आता है। वे जब तक दूसरों के दोष नहीं देख लेते तब तक उनका भोजन हजम नहीं होता। उनकी इस अहंकारीवृत्ति को देखते हुए ऐसा लगता है, मानो दूसरों के कार्य-कलापों की चैकिंग करने के लिए उन्हें इंस्पेक्टर बनाया हो। वे लोगों के सामने गर्वोच्छत होकर कहते फिरते हैं-“मैं प्रत्येक व्यक्ति के पैरों की चाल देखकर उसके स्वभाव, कार्य, वृत्ति और प्रवृत्ति का पता लगा सकता हूँ।" वे दूसरों के कार्यों का इंस्पेक्शन करने में इतने व्यस्त रहते हैं कि उन्हें अपनी वृति-प्रवृत्तियों का निरीक्षण-परीक्षण करने का समय ही नहीं मिल पाता। ऐसे लोग अभिमानपूर्वक कहते हैं-“मैं तो कदापि भूल नहीं करता, दूसरे लोग भूल के सिवाय कुछ करते ही नहीं हैं।' परन्तु यह उनका निरा अभिमान है।
१. देखें-कर्मविज्ञान, खण्ड ६, भा. ३ में मनः-संवर, वचन-संवर और काय-संवर पर निबन्ध
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