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* १७० कर्मविज्ञान : भाग ७
अपना निर्वाह करता है, किसी पर बोझरूप नहीं है, धर्म- पालन के लिए शरीर का धारण-पोषण करता है । '
पात्र का विचार करने के साथ देयवस्तु का भी विचार करना चाहिए
इन तीनों पात्र, मध्यम सुपात्र और उत्कृष्ट सुपात्र के सिवाय देयवस्तु की सात्त्विकता, राजसत्ता और तामसिकता का भी विचार करना आवश्यक है। यदि देयवस्तु त्रस प्राणिहिंसाजन्य है, नशीली, रोगोत्पादक, आलस्यवर्द्धक, रजोगुणपोषक या आदाता के योग्य नहीं है अथवा उत्कृष्ट सुपात्र के लिए कल्पनीय, एषणीय या ग्राह्य नहीं है, तो उसे देने से रजोगुण या तमोगुण की वृद्धि या पोषण होना सम्भव है, सतोगुण का नहीं ।
दान : स्वरूप, विशेषता और उससे पुण्य, संवर और निर्जरा
इसलिए 'तत्त्वार्थसूत्र' में तथा 'आगमों' में जहाँ-जहाँ दान का वर्णन आता है, वहाँ व्यवहारदृष्टि से दान का अर्थ किया गया है- “ अनुग्रह ( स्व - परोपकार अथवा स्व-पर-कल्याण) के हेतु अपनी किसी भी वस्तु का व्युत्सर्ग ( स्वेच्छा से त्याग) करना दान है।" दान की एक परिभाषा यह भी है - " दानं संविभागः । ” अर्थात् सम्यक् प्रकार से किया हुआ विभाग (स्वयं के अत्यावश्यक उपभोग के साथ-साथ उसका उचित विभाजन करना, ताकि कुछ अंश उपकारी और कल्याणकारी कार्यों में लग सके) दान है। इसके साथ ही दान क्रिया की सफलता, पुण्योपार्जन के साथ-साथ संवर और निर्जरा की शक्यता को व्यक्त करते हुए 'तत्त्वार्थसूत्र' में कहा गया है- “ विधि, द्रव्य, दाता और पात्र की विशेषता की अपेक्षा से दान में विशेषता (विशिष्ट गुणवत्ता ) होती है ।" आशय यह है कि कर्ममुक्ति के साधक यदि दान के इन चार अंगों पर विचार करता है तो उसका वह दान पुण्यबन्ध का कारण तो
१. (क) उत्कृष्ट सुपात्र के लिए देखें - सूत्रकृतांग में पाठ - " अहाह भगवं एवं, से दंते दविए वोसकाएति वच्चे माहणेत्ति वा समणेत्ति वा, भिक्खुत्ति वा णिग्गंथेत्ति वा । इति विरए सव्व पावकम्मेहिं विरए समिए सहिए समाजए णो कुज्झे णो माणी माहणति वच्चे।"
(ख) मध्यम सुपात्र श्रावक के लिए देखें- सूत्रकृतांग, श्रु. २, अ. २ में धर्मपक्षीय पाठ." अप्पारंभा, अप्पपरिग्गहा, धम्मिया, धम्माणुया, धम्मिट्ठा, धम्मक्खाइ, धम्मपलोइ, धम्मपवज्जणा, धम्मसमुदायारा धम्मेण चेव वित्तिं कप्पेमाणा, सुसीला सुव्वया सुप्पडियाणंदा साहूहिं त्ति ।”
(ग) भगवतीसूत्र में चतुर्विधसंघ, चतुर्विधतीर्थ में गौतमादि साधुओं को भगवान ने मम (बृहत् ) अन्तेवासी तथा उपासकदशांगसूत्र में आवेद आदि श्रावकों को मम (लघु) अंतेवासी कहा है। समवायांगसूत्र में साधु को श्रमण तथा प्रतिमाधारी श्रावक को 'श्रमणभूत' कहा है।
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