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ॐ ८८ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ७ *
कायर को भी; यानी दोनों को जब एक दिन मरना ही है, तब धीर पुरुष की तरह समाधिपूर्वक मरना ही श्रेष्ठ है।"१ सत्यनिष्ठ साधक मरणभय से नहीं डरता
आचार्य हेमचन्द्र के पाट पर आचार्य रामचन्द्र बैठे, उधर कुमारपाल के सिंहासन पर जयपाल बैठा। परन्तु वह भोगी, विलासी, सुरा-सुन्दरी में आसक्त
और अत्याचारी था। फिर भी प्रजा पर अपनी धाक जमाने के लिए आचार्य रामचन्द्र से कहा-“आप मेरी प्रशस्ति लिखिये, मैं आपको सब तरह से सम्मान दूंगा।" किन्तु स्वातंत्र्यप्रिय निर्भीक आचार्य ने उससे कहा-“मैं झूठा यशोगान कदापि नहीं करूँगा। अगर तुम अपना जीवन न्यायनीति, ईमानदारी एवं सदाचार से युक्त बनाओ, तो कर सकता हूँ।" इस पर क्रुद्ध होकर जयपाल ने आचार्य को बंदी बना लिया और अमानुषिक यातनाएँ देकर मरवा डाला व सत्यनिष्ठ आचार्य अन्तिम समय तक सत्यपथ से विचलित न हुए, न ही उनके मन में भय, उद्वेग एवं खेद का संचार हुआ। मरणभय या अन्य सभी भय उसी को पीड़ित करते हैं, जिसके मन में किसी प्रकार की आशंसा या भोगों आदि की आकांक्षा है।
भय आत्मा की दुर्बलता है। स्वयं के पराक्रम की कमजोरी है, इसके रहते साधना में तेजस्विता नहीं आती। जहाँ भी धन, पदार्थ, पद या किसी पदार्थ की आशंसा होगी, चाहे वह जीने की हो, चाहे इहलोक-परलोक में सुखभोग की हो या अन्य वस्तुओं की, वहाँ भय अवश्यम्भावी है। धन की आशंसा होगी तो चोर-डाकुओं का भय बना रहेगा, जीने की आशंसा होगी तो मृत्यु का भय बना रहेगा।
अनाशंसा या अनाकांक्षा के बिना अभय नहीं आ सकता। आनन्द, कामदेव, अर्हन्त्रक आदि गृहस्थ श्रावकों के जीवन में धर्म और मोक्ष से बढ़कर कोई आशंसा
१. (क) 'साधना के मूल मंत्र' से भावांश ग्रहण, पृ, २५४-२५५
(ख) पंचाध्यायी' (उ.), श्लो. ५२५-५४४ (ग) उत्तराध्ययन, अ. १४, गा. २२ (घ) न भाइयव्वं भयस्स वा, वाहिस्स वा, रोगस्स वा, जराए वा, मच्चुस्स वा।
-प्रश्नव्याकरण २/२ (ङ) गहिओ सुगईमग्गो नाहं मरणस्स वीहेमि।
-आतुरप्रत्याख्यान ६३ (च) धीरेणावि मरियव्वं कापुरिसेणा वि अवस्सं, मरियव्वं । दुण्हं पि हु मरियव्वं, वरं खुधीरत्तणे मरिउं॥
-वही ६४ २. 'साधना के मूल मंत्र' से संक्षिप्त, पृ. २५९
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