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४ ९६ कर्मविज्ञान : भाग ७
मुस्काती हुई व्यास जी की मुखाकृति देखी। व्यास जी ने अपनी माया समेट ली | जैमिनी लज्जा के मारे नीचा मुँह किये खड़े थे ।
व्यास जी ने कहा - " वत्स ! उस श्लोक में 'विद्वान्' शब्द ठीक है न ?" जैमिनी ने गुरुदेव के चरणों में पड़कर अपनी भूल के लिए क्षमा माँगी । सिंहगुफावासी मुनि को रूप का निमित्त ले डूबा था
जिस जैन मुनि ने सिंहगुफा में निवास करके पूरा चातुर्मास उपवासपूर्वक बिताया था। उसने ईर्ष्यावश अपने गुरुभ्राता स्थूलिभद्र मुनि का अनुकरण करने की ठानी। अतः रूपकोशा गणिका के यहाँ चातुर्मास करने गया । परन्तु रूपकोशा के देखते ही उसका चित्त चलायमान हो गया और उसने कामसुख की प्रार्थना की। किन्तु रूपकोशा तो मुनि स्थूलभद्र के उपदेश से श्राविका बन चुकी थी, उसने उक्त मुनि को कायिक पतन से बचा लिया ।
ये दोनों उदाहरण निमित्तरूपी चिनगारी की प्रबलता सूचित करते हैं।
कोमल केश - स्पर्श अधःपतन का कारण बना
ध्यानमग्न एवं आजीवन अनशन - प्रतिज्ञाबद्ध सम्भूति मुनि को चक्रवर्ती की रानी के बालों के कोमल स्पर्श ने उनके मन को कामभोगों के सुखों की कल्पना ने विचलित कर दिया। अपने तप को दाँव पर रखकर सम्भूति मुनि ने आगामी भव में वैसे उत्तम स्त्रीरत्न मिलने का निदान ( कामसुखरूप फलाकांक्षा) कर लिया। यद्यपि उसके पार्श्ववर्ती चित्त मुनि ने उन्हें ऐसा करने से बहुत रोका, परन्तु वे इस कोमल स्पर्श से काममूढ़ बन गए । फलतः कोमल केश-स्पर्श के निमित्त ने एक क्षण में उनके तप - संयम से ओतप्रोत जीवन का सर्वनाश कर दिया ।
अन्तर्मन में निहित काम संस्कार निमित्त मिलते ही महक उठे
और भगवान अरिष्टनेमि के सहोदर रथनेमि मुनि को भी कामवृत्ति ( वेदमोह कर्म) के अन्तर्मन में निहित संस्कारों ने पछाड़ दिया। वस्त्र भीग जाने के कारण अनायास ही सती राजीमती ने अपने वस्त्र सुखाने के लिए जिस गुफा में प्रवेश किया, वहाँ पहले से ही मुनि रथनेमि ध्यानस्थ थे। गुफा के अन्धकार में सती राजीमती को पता नहीं लगा कि यहाँ रथनेमि मुनि ध्यानस्थ हैं। परन्तु ज्यों ही सती वस्त्र फैलाकर सुखाने के पश्चात् निर्वस्त्र हुई, त्यों ही मुनि रथनेमि का मन कामार्त्त होकर अधःपतन की ओर मुड़ने लगा। राजीमती को उन्होंने काम-सुख के लिए आमंत्रित भी किया। मगर राजीमती साध्वी के जोशीले प्रेरणाप्रद वचनों ने उन्हें कामवृत्ति से विरत और संयम में स्थिर किया ।
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