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ॐ १२६ ® कर्मविज्ञान : भाग ७ ॐ
तो शुभ योग में भी विकल्प होता है, विकल्प जहाँ होता है, वहाँ शुभाशुभ कर्मों का आस्रव (आगमन) और उत्तरकाल में रागादि विभावों के जुड़ जाने से शुभाशुभ कर्मों का बन्ध होता रहता है। शुभ योग के दो प्रकार : प्रशस्त और अप्रशस्त : स्वरूप और अन्तर
शुभ योग में प्रशस्त और अप्रशस्त दो प्रकार हैं जैसे किसी व्यक्ति की दृष्टि सम्यक् नहीं है अथवा वह पंथवादी सम्यक्त्वधारक है, उसकी दृष्टि लक्ष्य, साध्य या मोक्ष की ओर नहीं है और न ही आत्मा-परमात्मा के प्रति ज्ञानयुक्त श्रद्धा-भक्ति है, उसमें देवमूढ़ता, गुरुमूढ़ता और धर्ममूढ़ता व्याप्त है, वह व्यक्ति ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप तथा समत्व, दान, शील आदि का आचरण करता है, किन्तु इसके पीछे अन्तर्मन में इहलौकिक-पारलौकिक कामना-वासना-तृष्णा-स्वार्थलालसा छिपी है, प्रशंसा, प्रसिद्धि, कीर्ति आदि की लिप्सा है, अविवेक, स्वार्थ, गर्व, मद, भय, निदान, संशय, रोष या अविनय, अबहुमान आदि दोष उक्त चारों की साधना में लिपटे हुए हैं तो शुभ योग होते हुए भी वह प्रशस्त शुभ योग नहीं तथा वह उस शुभ योग के साथ शंका (संशय), कांक्षा (फलाकांक्षा), विचिकित्सा (फल में सन्देह या उसके प्रति अरुचि या घृणा), मिथ्यादृष्टि-परायण लोगों के, आडम्बर, प्रदर्शन एवं धुआँधार प्रचार देखकर उस ओर लुढ़क जाता है अथवा एकान्तवादी या मिथ्यादृष्टि-परायण लोगों से अत्यधिक संसर्ग करके उनमें ही घुल-मिल जाता है। अत्यधिक चंचलता, मलिनता तथा अगाढ़ता आदि दोषों से ग्रस्त हो जाता है। अतः कथंचित् शुभ योग होते हुए भी वह प्रशस्त और निर्दोष शुभ योग नहीं है। ऐसा शुभ योग मिथ्यात्वी में भी हो सकता है, किन्तु वह सम्यग्दृष्टियुक्त न होने से अशुभ योगास्रव निरोध का कारणरूप शुभ योग-संवर नहीं हो सकता, किन्तु उससे पुण्यबन्ध हो सकता है। अप्रशस्त शुभ योग और अशुभ योग में अन्तर
इस अप्रशस्त शुभ योग और अशुभ योग में अन्तर यह है कि अशुभ योगी के विचार, वाणी और कार्य तीनों ही अशुभ भावों से ग्रस्त होते हैं तथा घोर मिथ्यात्व दशा से युक्त होते हैं, जबकि अप्रशस्त शुभ योगी के विचार, वाणी और व्यवहार या कार्य तीनों ही शुभ भावों से युक्त होते हैं, वह मन्द-मिथ्यादृष्टि होने से कदाचित् सुलभबोधि और शुक्लपक्षी भी हो सकता है। इन्द्रभूति गौतम आदि गणधरं भगवान १. 'श्री अमर भारती', फरवरी १९९५ के अंक में प्रकाशित 'चैतन्य की तीन धाराएँ' लेख से
यत्किंचित् भाव ग्रहण २. शुभः पुण्यस्य, अशुभः पापस्य।
-तत्त्वार्थसूत्र, अ. ६, सू. ३-४
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