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योग का मार्ग : अयोग-संवर की मंजिल १२९
अन्य दर्शनों और जैनदर्शन की दृष्टि में अन्तर
अन्य दर्शनों की दृष्टि में और जैनदर्शन की दृष्टि में यही अन्तर है । दर्शनों का चिन्तन यह है कि कर्म (प्रवृत्ति या क्रिया) बिलकुल समाप्त हो गया तो संसार कैसे चलेगा ? शरीर - यात्रा कैसे चलेगी? परन्तु भगवान महावीर संसार - यात्रा में कर्मासक्त जीवों की प्रवृत्ति और परिणाम भी बताते हैं और जिसका लक्ष्य कर्मों से मुक्ति पाना है, जिसे अकर्म-अवस्था या अयोग अवस्था प्राप्त करनी है, उसके लिये वे पापकर्मबन्ध से मुक्त रहने की, लक्ष्ययुक्त दृष्टि रखकर यतनापूर्वक शुभ योग में प्रवृत्ति करते हुए शुद्धोपयोग से युक्त होने तथा बीच-बीच में अयोग-संवर की स्थिति प्राप्त करने की और अन्त में पूर्ण अयोग-संवर की स्थिति प्राप्त करने की । आत्मार्थी और मुमुक्षु जीवों को प्रेरणा करते हैं। वे सर्वकर्ममुक्ति के लिए संसार की ओर पीठ देकर चलने का निर्देश करते हैं । केवलज्ञान-प्राप्ति के अनन्तर भगवान महावीर का मुँह संसार की ओर रहा ही नहीं, उनका मुख मुक्ति की ओर रहा है । ' 'उत्तराध्ययन चूर्णि' में भगवान महावीर के इसी दृष्टिकोण को स्पष्ट किया गया है - " जब आत्मा मन, वचन और काया की चंचलता ( प्रवृत्ति या क्रिया) रूप योगास्रव का पूर्ण निरोध कर लेता है, तभी सदा के लिए आत्मा और कर्म पृथक् हो जाते हैं।"२ अर्थात् आत्मा को पूर्णतया कर्मों से पृथक् (रहित) करने के लिए पूर्ण अयोग-संवर ( अकर्म ) की मंजिल तक पहुँचना अनिवार्य है। महावीर ने गति ( प्रवृत्ति) को स्थिति की राह दिखाने के लिए संवर शब्द का प्रयोग किया है। उनके द्वारा परिभाषित योग में अयोग की, कर्म (गति - प्रवृत्ति) में अकर्म की प्रेरणा है। इसका यह अर्थ नहीं है कि प्रवृत्ति क्रियारूपं कर्म का भगवान महावीर सर्वथा विरोध करते हैं। यदि ऐसा होता तो वे संवर का ही उपयोग करते या संवर का उपयोग करने की ही प्रेरणा करते, निर्जरा शब्द का कतई उपयोग ही नहीं .१.. 'योग से अयोग की ओर' (ले. - पं. मुनि सुखलाल जी ) से भाव ग्रहण, पृ. १३४-१३५ २. (कं) यदा निरुद्ध-योगानवो भवति ।
- उत्तराध्ययन चूर्णि. १
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तदा जीव- कर्मणोः पृथक्त्वं भवति ॥
(ख) जया संवर मुक्किट्ठे धम्मं फासे अणुत्तरं । तया धुणइ कम्मरयं अबोहिकलुसं कडं ॥२०॥ जया धुणइ कम्मरयं अबोहिकसं कडं । तया सव्वत्तगं नाणं दंसणं चाभिगच्छइ ॥ २१ ॥ जया सव्वत्तगं नाणं दंसणं चाभिगच्छइ । तया लोगमलोगं च जिणो जाणइ केवली ॥२२॥ जया लोगमलोगं च जिणो जाणइ केवली | तया जोगे निरुंमित्ता सेलेसिं पडिवज्जइ ॥२३॥
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- दशवै., अ. ४
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