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* १२४ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ७ *
समाहित हो जाता है। शास्त्र में अनुत्तरविमान में उत्पन्न होने योग्य करणी सरागसंयम की कही है। मनुष्यभव में संयम का आराधक ही वहाँ तक जाता है। वहाँ से मनुष्यभव प्राप्त करके तप-संयम की करणी से मोक्ष जाता है। अतः ऐसे आराधक संयमी के प्रशस्तरागभाव के कारण उत्कृष्ट शुभास्रव (शुभ योग = पुण्य) के साथ-साथ संवर और निर्जरा की साधना रहती है। इसलिए शुभ योग को संवररूप मानने में कोई भी हिचकिचाहट नहीं होनी चाहिए।' सर्वप्रथम प्रवृत्ति का विचार प्रायः मन में प्रादुर्भूत होता है ___ साधना की दृष्टि से विचार करें तो मन, वचन और काया, ये क्रिया या प्रवृत्ति के तीन स्रोत (योग) होते हुए भी सर्वप्रथम किसी भी प्रवृत्ति या क्रिया का विचार प्रायः मन में होता है, जिन असंज्ञी जीवों के द्रव्यमन नहीं है, उनके भावमन तो है, सुख-दुःख का संवेदन भी उन्हें होता है, किन्तु होता है बहुत ही सूक्ष्म, अव्यक्त एवं सुषुप्त-से रूप में। वैसे सैद्धान्तिक दृष्टि से उपयोग के पाँच ज्ञान, तीन अज्ञान और चार दर्शन ये १२ प्रकार होने से ज्ञान की ज्योति एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक में न्यूनाधिक रूप में रहती ही है। भले ही अज्ञान (कुज्ञान) के रूप में हो। मन में प्रादुर्भूत अन्तरंग भावधाराएँ-अशुभ, शुभ, शुद्ध ,
- इसलिए मन के द्वारा सर्वप्रथम होने वाली अन्तरंग भावधाराओं (चिन्तन । प्रवृत्तियों) को हम तीन भागों में विभक्त कर सकते हैं-अशुभ, शुभ और शुद्ध। अशुभ भावधाराओं से अशुभानव पापकर्मबन्ध और कटुफल
जब व्यक्ति में क्रोध, अहंकार, मोह, माया, लोभ, घृणा, द्वेष, हिंसादि क्लिष्ट एवं निकृष्ट तीव्र भावधाराएँ बहती हैं, तब अशुभ भावों से अशुभ आस्रव का ही ग्रहण-उपार्जन करता है। वह अपनी क्रूर, क्लिष्ट, परदुःखकारिणी अशुभ भावनाओं के प्रवाह में बहकर वचन से पर-निन्दा, गाली, अपशब्द, दूसरों की भर्त्सना आदि का प्रयोग करने में रत रहता है और काया से भी वह मारकाट, हत्या, लूटपाट, आतंक, उपद्रव आदि कुप्रवृत्तियाँ करता है। उसकी अशुभ और मिथ्यात्व पोषक दृष्टि अपने ही घोर तुच्छ स्वार्थ तक ही सीमित रहती है। वह
१. (क) जोग-पच्चक्खाणेणं अजोगत्तं जणयइ। अजोगी णं जीवे नव कम्मं न बंधइ। पुव्वबद्धं
च णिज्जरेइ। (ख) सहायपच्चक्खाणेणं संजमबहुले संवरबहुले, समाहिए यावि भवइ।
-उत्तराध्ययन, अ. २९, सू. ३७, ३९ २. यन्मनसा ध्यायति तद् वाचा वदति, यद् वाचा वदति, तत्कर्मणा करोति। यत्कर्मणा करोति, तत् फलमुपपद्यते।
-उपनिषद्
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