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ॐ १०८ ® कर्मविज्ञान : भाग ७ *
उपादान शुद्ध होने पर भी निमित्त मिले तो प्रायश्चित्त से शुद्ध हो
ये सब उपाय आजमाते हुए और नवविध ब्रह्मचर्य-गुप्तियों द्वारा ब्रह्मचर्य-सुरक्षा करते हुए भी कदाचित् कोई निमित्त अचानक उपस्थित हो जाए तो तुरन्त प्रायश्चित्त ग्रहण करके आत्म-शुद्धि कर लेनी चाहिए।
स्वामी दयानन्द सरस्वती गंगा के तट पर ध्यानस्थ बैठे थे। अकस्मात एक महिला ने भक्तिभाव से प्रेरित होकर उनका चरण स्पर्श कर लिया। यह जानते ही वे एकदम पीछे हटे, उस महिला को समझाया। उनकी आँखों में आँसू उमड़ पड़े। वे वहाँ से उठकर पहाड़ पर चले गए, वहाँ प्रायश्चित्तस्वरूप तीन दिन तक निर्जल . उपवास करके ईश्वर-चिन्तन में लीन रहे। निमित्तों से बचने के लिए निम्नोक्त नियमों का पालन करे
इसके अतिरिक्त कामविकार के निमित्तों से बचने के लिए निम्नोक्त नियमों का पालन अवश्य करना चाहिए-(१) विजातीय या उसके चित्र की ओर विकारी दृष्टि का त्याग, (२) सजातीय स्पर्श-त्याग, (३) एकान्त, अन्धकार तथा व्यभिचारस्थलों का त्याग, (४) सिनेमा, टी. वी. आदि पर कामोत्तेजक दृश्यों को देखने तथा कामोत्तेजक साहित्य पढ़ने-सुनने का त्याग, (५) साजसज्जा, श्रृंगार प्रसाधन एवं भड़कीले वस्त्रों का त्याग, (६) कामवासनावर्द्धक तामसी, राजसी तथा मादक एवं गरिष्ठ दुष्पाच्य खान-पान का सर्वथा त्याग, (७) कामविकार बढ़ाने वाली विकृतियों (विगहयों-अभक्ष्य आहार आदि) का भी सेवन त्याज्य समझना चाहिए।
इन नियमों तथा प्रत्याख्यानों से काम का पूर्ण संवर नहीं तो आंशिक संवर होता ही है, शास्त्र में श्रमणोपासकों के लिए देशपौषध तथा परिपूर्णपौषधव्रत का विधान है, वे भी वेदमोहनीय के संवर तथा निर्जरा के हेतु हैं। विजातीय के विकारी दर्शन से ब्रह्मचर्य-भंग होना सम्भव ।।
विजातीय स्पर्श से या विजातीय के दर्शनमात्र से कैसे वेदमोहनीय (काम) कर्म बँध जाता है, इसके लिए आगम में एक उदाहरण प्रसिद्ध है-भगवान महावीर के समवसरण में मगध नरेश श्रेणिक और रानी चेलना के आने पर वहाँ उपस्थित साधु-साध्वियों ने उनके रूप को देखकर नियाणा कर लिया था, परन्तु भगवान महावीर की केवलज्ञान की पारदर्शी दृष्टि से ज्ञात होते ही उन्होंने तुरन्त इस दुष्कृत्य का व्युत्सर्ग करवाया और आत्म-शुद्धिकरण करवाया। एक भूतकालीन सत्य घटना भी इस तथ्य को उजागर करती हैब्रह्मचर्यनिष्ठ संन्यासी त्रिलोकनाथ जी का निमित्त मिलते ही पतन __-एक हिमालयवासी संन्यासी थे। नाम था त्रिलोकनाथ जी। उनकी आयु तो सौ वर्ष की थी, परन्तु ब्रह्मचर्य की अप्रतिम शक्ति के कारण वे बिलकुल जवान प्रतीत
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