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* कामवृत्ति से विरति की मीमांसा ९५
साधना इतने वर्षों की हो गई, मैं इतनी तप, जप, भगवद्भक्ति या ज्ञानादि की साधना कर रहा हूँ, उच्च शिक्षित, शासक, श्रावक, भक्त या धनिक मेरी प्रशंसा कर रहे हैं, मेरी यशकीर्ति एवं प्रसिद्धि दूर-दूर तक फैली हुई है। क्या मैं इन बाह्य अशुभ निमित्तों से अपनी संवर-निर्जरा की साधना से फिसल सकता हूँ? ये अशुभ निमित्त मेरा क्या बिगाड़ सकते हैं ? इस प्रकार के अहंकार से प्रेरित होकर कई संवर - निर्जरा-साधक अशुभ निमित्तों से दूर रहने में गफलत कर जाते हैं और वैसे निमित्त मिलते ही अन्तर्मन में पड़े हुए वे कामवासना ( वेदमोहनीय कर्म) के कुसंस्कार बड़े-बड़े ज्ञानी, ध्यानी, साधक-साधिकाओं को क्षणभर में पछाड़ डालते हैं ।
जैमिनी ऋषि को निमित्त ने पछाड़ दिया
व्यास जी ने एक श्लोक की रचना की, वह श्लोक इस प्रकार था -
" मात्रा स्वम्ना दुहित्रा वा, नो विविक्तासनो भवेत् । बलवानिन्द्रिय-ग्रामो, विद्वांसमपि कर्षति ॥"
- माता, बहन या पुत्री के साथ भी एकान्त में नहीं रहना, क्योंकि इन्द्रियाँ बड़ी प्रबल हैं, ये बड़े से बड़े विद्वानों को भी अपनी विषयवासना की ओर खींच लेती हैं।
व्यास जी के शिष्य जैमिनी ऋषि को यह श्लोक तो बहुत रुचिकर लगा, परन्तु उन्होंने गुरुजी से निवेदन किया - "गुरुदेव ! इसमें से 'विद्वान्' शब्द निकाल देना चाहिए; क्योंकि विद्वान् का कदापि पतन नहीं हो सकता।”
व्यास जी ने कहा-“वत्स ! यह शब्द ठीक है, तुझे अभी इसका अनुभव नहीं है। अभी पाँच-छह दिन इस शब्द पर गहराई से मनन कर। इसके पश्चात् भी तेरा आग्रह टिका रहेगा तो मैं विद्वान् शब्द को इस श्लोक में से निकाल दूँगा । किन्तु मेरी समझ से तो यह शब्द बिलकुल ठीक है ।"
व्यास जी ने जैमिनी को इस तथ्य का यथार्थ बोधपाठ देने का निश्चय किया। दूसरे ही दिन आकाश में अचानक मेघ छा गए । घोर अंधकार व्याप्त हो गया । बिजलियाँ चमकने लगीं और मूसलाधार वर्षा होने लगी ।
जैमिनी अचानक हुई वृष्टि की लीला देखने हेतु अपनी कुटिया से बाहर निकले। इतने में एक तरुण युवती वर्षा से भीगती हुई वहीं आ गई । उसका मोहक रूप और भीगे हुए वस्त्रों से उसके मादक कोमलांगों को देखकर जैमिनी ने उसे कुटिया में प्रवेश करने को कहा । उसे भीगे हुए कपड़े उतारकर नये वल्कल वस्त्र पहनने को कहा। वस्त्र-परिधान करते समय जैमिनी का मन कामविकार से पूर्णतया व्याप्त हो गया। उस युवती ने ज्यों ही घूँघट खोला त्यों ही जैमिनी ने मंद-मंद
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