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ॐ कषायों और नोकषायों का प्रभाव और निरोध ® ८७ *
संवर-निर्जरारूप धर्म का आचरण करने वाले को इन पर-पदार्थों के चले जाने का भय प्रायः नहीं होता। भय उसी को होता है, जैसा कि कहा है-“सामाइयमाहु तस्स जं जो अप्पाणं भयं न दंसए।"-सामायिक (समभाव) उसी आत्मा के होता है जिसके मन में भय का दंश नहीं होता। उसे अकस्मात् (आकस्मिक) भय भी नहीं होता; क्योंकि आयुष्यकर्म प्रबल है तो किसी प्रकार की दुर्घटना नहीं होगी, दुर्घटना होगी भी या दुःसाध्य रोग उत्पन्न होगा, तो भी उससे वह उबर जायेगा। वह समभावपूर्वक, निर्भयतापूर्वक सहन करके कर्मनिर्जरा कर लेगा।
वेदनाभय भी रोगादि के पूर्व भी पीछे भी होता है, किन्तु असातावेदनीय कर्म के उदय के कारण रोगादि पीड़ा उत्पन्न होने पर भी सम्यग्दृष्टि उपचार करता है, दुःख का वेदन या आर्तध्यान नहीं करता, फलतः समभावपूर्वक सहन करके कर्मक्षय कर लेता है। अपयशभय भी सचाई पर चलने वाले साधक को नहीं होता। मान लो, पूर्वबद्ध अशुभ कर्म के उदय के कारण उस पर कोई कलंक या अपयश लग गया, तो भी सम्यग्दृष्टि घबराता नहीं है। फलतः शीघ्र ही वह झूठा कलंक धुल जाता है। परन्तु अपकीर्ति के भय से आत्महत्या करना तो भयंकर पापकर्मबन्ध करना है। आजीविकाभय भी उसे सताता है, जिसे आत्म-विश्वास नहीं है, अपने पुण्यों पर भरोसा नहीं हैं, अपनी शक्ति, मनोबल या पराक्रम पर विश्वास नहीं है। क्या पूणिया श्रावक को अपनी थोड़ी-सी आजीविका पर विश्वास नहीं था? बुढ़ापे में मेरा क्या होगा? मेरी प्रतिष्ठा समाप्त न हो जाय ! ये सब भय उसी को सताते हैं, जिसे आत्मा पर या आत्मा के सद्धर्म, सत्कर्म पर विश्वास नहीं होता।
मरणभय : किसको होता है, किसको नहीं ? मरणभय सबसे प्रबल है। 'उत्तराध्ययन' में कहा गया है-“मच्चुणा अब्भाहओ लोओ।"-समग्र लोक मृत्यु से अभ्याहत = आक्रान्त है। शरीरनाश के विषय में चिन्ता होना मृत्युभय है। मौत का भय बड़े-बड़े योद्धाओं, शासकों, धनिकों, साधकों को सताता है। मृत्यु का काल्पनिक भय भी उसी को सताता है, जिसकी दृष्टि सम्यक् न हो, जिसे तत्त्व का ज्ञान न हो, जो तत्त्वज्ञ है, सम्यग्दृष्टि है, उसे मृत्यु का भय नहीं सताता। वह सोचता है कि जो जन्मा है, उसकी मृत्यु तो एक न एक दिन होने ही वाली है। ‘आतुरप्रत्याख्यान' के अनुसार-“मैंने सुगति का या मोक्षगति का मार्ग अच्छी तरह ग्रहण किया है, इसलिए मैं मृत्यु से क्यों डरूँ ? उसे जब भी आना हो आये !” “धीर पुरुष को भी एक दिन अवश्य मरना है और
१. (क) 'साधना के मूल मंत्र' से भावांश ग्रहण, पृ. २५५, २५७
(ख) पंचाध्यायी' (उत्तरार्द्ध), श्लो. ५०६, ५१६-५४४ का भाव ग्रहण
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