________________
ॐ कषायों और नोकषायों का प्रभाव और निरोध ॐ ८५ *
भय से साधना में कितनी हानि, कितनी क्षति ? ___ अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते हुए साधक का कदम जब आगे बढ़ने से रुक जाता है, शंका, अविश्वास, सन्देह और आकांक्षाओं के घेरों से घिरकर मनुष्य अपने लक्ष्य की ओर बढ़ता हुआ ठिठक जाता है, उसी का नाम भय है। 'स्थानांगसूत्र' में भय उत्पन्न होने के ४ कारण बताये हैं-(१) शक्तिहीन होने से या हीनभाव आने से, (२) भय वेदनीय कर्म के उदय से, (३) भय की बात सुनने या भयानक दृश्य देखने से, और (४) इहलोक आदि भय के कारणों को याद करने से।' साधक की यही कमी उसका विकास रोक देती है। अगर मन में किसी प्रकार का भय न हो तो वह शीघ्र ही आगे बढ़ जाता। 'प्रश्नव्याकरणसूत्र' में सत्य-संवर के सन्दर्भ में कहा गया है-“जिसकी सत्य के प्रति वफादारी है, निष्ठा है, धृति है, वह मनुष्य किसी भी भय से आक्रान्त नहीं हो सकता। सत्य की आज्ञा में उपस्थित मेधावी मृत्यु को भी पार कर जाता है, वह अमर हो जाता है। इसके विपरीत जो भयभीत होता है, वह तप और संयम को भी छोड़ बैठता है। भयभीत मानव किसी भी गुरुतर दायित्व को नहीं निभा सकता और न ही भयभीत मानव किसी का सहायक हो सकता है। जो स्वयं भी डरता है वह दूसरों को भी डरायेगा। भयभीत मनुष्य के पास भय शीघ्र आते हैं। संसार में भयाकुल व्यक्ति ही भूतों के शिकार होते हैं। भूतकाल की डरावनी स्मृतियाँ, अतीत की विपत्तियों के स्मरण तथा अन्य भयानक दृश्यों की यादें उन्हें और भयभीत कर देती हैं। अतः न तो स्वयं किसी बात से डरना चाहिए और न ही किसी को डराना चाहिए। भय मनुष्य के साहस को तोड़ देता है।'' वह जब भी अहिंसादि की साधना के मार्ग में आगे बढ़ने लगता है, तब भय शैतान की तरह उसके मानस में आकर कहता है-यदि तू असफल हो गया तो क्या करेगा? यदि तू संकट में पड़ गया तो तेरी क्या दशा होगी? यदि निर्भयता आ जाये तो मनुष्य आत्म-विश्वास और साहस के साथ आगे से आगे बढ़कर समता, क्षमा, मृदुता, ऋजुता, पवित्रता, सत्य, संयम आदि धर्मों का पालन करके साधना के शिखर तक पहुंच सकता है, कर्मों के जाल तथा कषायों के दाँव-पेच का अतिक्रमण करके वह समस्त कर्मों से मुक्त होकर अनन्त आत्मिक ऐश्वर्य प्राप्त कर सकता है।
१. स्थानांगसूत्र ४/४/३५६ २. (क) सच्चस्स आणाए उवढिओ मेहावी मारं तरइ।
-आचारांग १/३/३ ख) सच्चम्मि धिई कुव्वहा।
-वही १/३/२ (ग) भीतो तव-संजमं पि हु मुएज्जा। भीतो य भर ने नित्थरेज्जा। भीतो अबितिज्जओ
मणुस्सो। भीतं खु भया अर्हति लहुयं। भीतो भूतेहिं घिप्पइ। भीतो अन्नं पि हु भेसेज्जा। ण भाइयव्वं। .
-प्रश्नव्याकरण २/२ (घ) 'अमर आलोक' (उपाध्याय अमर मुनि) से भावांश ग्रहण, पृ. ११४
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org