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* अकषाय-संवर : एक सम्प्रेरक चिन्तन * ३९ *
में थोड़े-बहुत रूप में, न्यूनाधिक मात्रा में क्रोधादि कषाय रहते हैं। इसलिए सम्यग्दृष्टि एवं जाग्रत आत्मार्थी साधक कषायों के निरोध के लिए उद्यत है, उसे अकषाय-संवर में स्थिर रहने का आदेश देते हुए भगवान महावीर कहते हैं“(अकषाय साधना में) वीर पुरुष (तीव्र) कषाय के आदि अंग क्रोध और मान को मारे (नष्ट करे), लोभ को महान् नरक के रूप में (लोभ साक्षात् नरक है) देखे। इसलिए (कर्ममुक्ति का साधक) लघुभूत बनने का अभिलाषी वीर बनकर (सब प्रकार की) हिंसा से विरत होकर (कषाय के) स्रोतों को छिन्न-भिन्न कर डाले।"१
.. पापकर्मजनित दुःखों से बचने का उपाय अतः क्षणिक कषाय अथवा थोड़े-से भी कषाय से कितनी हानि होती है, कितना अधःपतन होता है ? इसका दीर्घ दृष्टि से विचार करें तो मनुष्य कषायों से क्षणिक लाभ के बदले भयंकर पापकर्म से होने वाले इहलौकिक-पारलौकिक दुःखों से बच सकता है, बशर्ते कि वह दीर्घदर्शी बनकर प्रत्येक कार्य के परिणाम (नतीजे) को सोचे, पापकर्म के फल का ध्यान रखे। किन्तु इसके विपरीत तीव्र कषाय करने वाले पापकर्म-परायण लोगों की दृष्टि बहुत ही निकट की होती है, वे दूर दृष्टि वाले नहीं होते। यदि वे तीव्र कषाय करते समय भावी परिणाम का, पापकर्मबन्ध का विचार करते तो इतना तीव्र कषायों का ज्वार उनके तन-मन-वचन में आता ही नहीं।
कषाय करने की आदत प्रायः बदलती नहीं अफसोस यह है कि मानव-जाति ने कषायों को बात-बात में अपनाने की ऐसी आदत बना ली है कि वह एक प्रकार का व्यसन हो चुका है। जिस प्रकार कोई व्यक्ति प्रतिदिन थोड़ा-थोड़ा विष खाते-खाते अपना शरीर विषैला बना लेता है, उस शरीर पर फिर विष का कोई असर नहीं होता। इसी प्रकार बचपन से ही प्रायः थोड़ा-थोड़ा छोटा-बड़ा कषाय करते-करते कषाय की आदत = वृत्ति ही ऐसी बना ली है कि उस पर अकषाय के उपदेश का कोई असर नहीं होता। वह कषाय व्यसनी अपनी आदत बदलने को प्रायः तैयार नहीं होता है।२।।
१. (क) ‘पाप की सजा भारी, भा. १' से भावांश ग्रहण, पृ. ५३१ - (ख) कोहाई-माणं हणिया य वीरे, लोभस्स पासे णिरयं महंत। तम्हा हि वीरे विरते वहाओ, छिंदेज्ज सौयं लहुभूयगामी।
-आचारांगसूत्र, श्रु. १, अ. ३, उ. २, सू..३९१ २. 'पाप की सजा भारी, भा. २' से भावांश ग्रहण, पृ. ५७१
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