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ॐ ५८ ® कर्मविज्ञान : भाग ७ ॐ
निकले हुए शब्द दूसरे के कलेजे के टुकड़े-टुकड़े कर देता है। शस्त्रों का घाव तो फिर भी इलाज से मिट जाता है, किन्तु शब्दों की चोट का घाव वर्षों तक, कभी-कभी जिन्दगीभर तक मिलता-भरता या मिटता नहीं, वह मर्मस्पर्शी शब्दों का प्रहार दूसरे को संतप्त, बेचैन एवं बुरी तरह से मर्माहत कर देता है। स्वयं की मानसिक स्वस्थता, शान्ति एवं गम्भीरता तो नष्ट होती ही है, तनाव, उद्विग्नता, बेचैनी, व्याकुलता आदि बढ़ जाती है। दिमाग की नसें तन जाती हैं। क्रोधावेश के कारण कई बार रक्तचाप, हृदय का दौरा बढ़ जाता है। शारीरिक क्षमता को लाँघकर जब क्रोध अतितीव्र हो जाता है तो उससे मस्तिष्क की नस भी फट जाती है, ब्रेन-हेमरेज हो जाता है। क्रोधावेश में आदमी अन्धा हो जाता है, उसे अपने हितैषी, मित्र, परिजन, स्वजन या गुरुजन का भी ध्यान नहीं रहता। शारीरिक
शक्ति न होते हुए क्रोधाविष्ट मानव जो भी शस्त्र, लाठी, ढेला, पत्थर या डण्डा हाथ में आया, उठाकर सामने वाले पर फेंक देता है। एक मनोचिकित्सक का कहना है कि क्रोध में व्यक्ति की शारीरिक शक्ति दस गुनी और मानसिक शक्ति बीस गुनी अधिक नष्ट हो जाती है। क्रोधावेश में मनुष्य अपने आपे को नहीं सँभाल पाता। उसकी परिवार, समाज एवं ग्राम-नगर प्रतिष्ठा समाप्त हो जाती है। क्रोधी से बात करने या उसके साथ व्यवहार करने में लोग कतराते हैं। घण्टे-दो घण्टे बाद जब उसका क्रोध ठण्डा पड़ता है, तब बेचारा थककर लोथ-पोथ हो जाता है, वह अपने किये पर पछताता है। वह शराबी की तरह एक जगह मुर्दे की तरह पड़ जाता है। क्रोधावेश में मनुष्य भान भूल जाता है। विनय, विवेक, मर्यादा सबको वह ताक में रख देता है। ‘प्रश्नव्याकरणसूत्र' के अनुसार-"क्रोधान्ध मनुष्य सत्य, शील और विनय को नष्ट कर डालता है।" 'भगवती आराधना' में कहा गया है-“क्रुद्ध मानव राक्षस की तरह मनुष्यों में भयंकर मानव बन जाता है।" क्रोध से मनुष्य का हृदय रौद्र बन जाता है। वह मनुष्य होते हुए भी नारक जैसा आचरण करने लग जाता है। शूद्र जन्मजात चाण्डाल, पर क्रोधी कर्म से चाण्डाल
वर्ण-व्यवस्था के अनुसार चाण्डाल के घर में जन्मा हुआ तो जन्मजात चाण्डाल कहलाता है, शूद्र भी, क्योंकि वह चोरी, जुआरी, शिकार, माँसाहार, मद्यपान आदि निन्द्य कर्मों में बेखटके रत रहता है। परन्तु जो बात-बात में तीव्र क्रोध, प्रचण्ड रोष, भयंकर रौद्र तथा तुनुकमिजाजी करता है, वह कर्म से (प्रचण्ड क्रोधी होने से) चाण्डाल बन जाता है। संस्कृत भाषा में चण्ड शब्द तीव्र कोप या क्रोध क वाचक है। जो उग्र क्रोध-रोष के कारण मन-वचन-काया से दुर्विचार, दुर्वचन और
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