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ॐ ६६ * कर्मविज्ञान : भाग ७ *
शरीर पर से सर्वात्मना व्युत्सर्ग करके उन्होंने तन, मन और वचन के योग को भी लगभग संवृत कर लिया था। बाहर से तन-वचन से बिलकुल निश्चेष्ट और स्थिर हो जाने के बावजूद मानसिक समाधि की पूर्णता उन्हें नहीं मिली। यों तो आत्म-साधना के प्रति सर्वथा समर्पित इस महान् साधक ने एक-एक दिन करके पूरा एक वर्ष व्यतीत कर दिया था। इस दौरान उन्होंने अपना परिवार, साम्राज्य, वैभव और अन्न-जल तक छोड़ दिया था, इसका विचार तक नहीं आया, परन्तु मन में एक अहंकार की फाँस चुभी हुई थी कि मैं अपनी आत्म-साधना में इतना आगे बढ़ गया हूँ, अतः अब मैं भगवान ऋषभदेव के पास जाऊँगा तो वहाँ मेरे से पूर्व दीक्षित ९८ छोटे भाइयों को मुझे वन्दन-नमन करना होगा। मन की गहराई में छिपा हुआ यह अहंकार नहीं छूट पाया। इस अहंभाव के चलते उन्हें साधना की मंजिलकेवलज्ञान की उपलब्धि नहीं हो रही थी। अपने से पूर्व दीक्षित अनुज मुनियों को वन्दन-नमन करके वे अपने स्वाभिमान को खोना नहीं चाहते थे। यही अहंकार का काला सर्प हृदय में फुफकारता हुआ, उनके केवलज्ञान-प्राप्ति के मार्ग में रोड़ा बनकर स्थित था। किन्तु ब्राह्मी और सुन्दरी दोनों साध्वी बहनों ने जब उन्हें अहंकार के हाथी से नीचे उतरने की प्रेरणा दी, उस प्रेरणा से प्रतिबुद्ध होकर मुनि बाहुबलि ने अपने गलत निर्णय को बदला और तुरन्त भगवान ऋषभदेव की शरण में जाने और अपने सहोदर मुनियों को वन्दन-नमन करने हेतु ज्यों ही उनके चरण बढ़े, अहंकार की मोह शृंखला टूट गईं और उनके अन्तर में केवलज्ञान की ज्योति जगमगा उठी। उसके पूर्व ही ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय, इन चार घातिकर्मों का सर्वथा क्षय हो गया। यह था मान कषाय का त्याग करने का सर्वतोभद्र उपाय। मान कषाय को कौन पण्डित आश्रय देगा?
मान कषाय कई रूपों में कर्ममुक्ति के साधक के जीवन में आता है, परन्तु अगर साधक जाग्रत और प्रबुद्ध होकर इसे तत्काल रोक दे और आत्म-स्वरूप के दर्पण में देखे तो मान कषाय से बचकर संवर और निर्जरा भी कर सकता है। मान एक रूप में नहीं, अनेक रूपों में जीवन में आता है। वह अभिमान, घमण्ड, गर्व, दर्प, अहंकार, Proud, अहंता-ममता, स्मय, अहमहमिका, प्रतिस्पर्धा, ईर्ष्या, मद, स्व का अधिक मूल्यांकन, धृष्टता, प्रगल्भ, चित्तोन्नति, प्रसिद्धि, प्रशंसा, कीर्ति की लिप्सा आदि अनेक रूप धारण करके चुपके से साधक के मन-मस्तिष्क में घुसता है। परन्तु जो विवेकी है, आत्मार्थी है, मुमुक्षु है, मान से होने वाली भयंकर आत्म-हानि को जानता है, वह भूल से भी इसे जरा-सी भी देर के लिए आश्रय १. त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित, पर्व १' से भावांश ग्रहण
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