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५० ® कर्मविज्ञान : भाग ७ *
इस विषय में वह स्वतन्त्र है। यदि किसी कषाय के मन में उदित होते ही व्यक्ति को उसे सफल करने योग्य विचारणादि न करना हो तो उसे कोई बाध्य नहीं करता। वह उस समय तत्काल वीतराग प्रभु या किसी अकषायी महापुरुष की कषायमुक्ति. की विचारणा करने लगे, परमात्मा के जीवन का विचार करने या पंच-परमेष्ठी का नामस्मरण करने लग जाये तो उसे कौन रोकता है ? वह स्वतन्त्र है ऐसे सत्पुरुषार्थ द्वारा उदित कषाय का निरोध करके उसे निष्फल बनाने में।
निष्कर्ष यह है कि मन में किसी भी कषाय के उठते ही कषायवर्द्धक विचार, वाणी, वर्तन बन्द करके वीतराग प्रभु के चरित्र आदि के चिन्तन में लग जाने से वह कषाय निष्फल हो जायेगा। ___ अकषाय-संवर का साधक उस समय यह विचार करे कि पूर्वकर्मवश अन्तर में कषायभाव के उठने में तो मैं स्वतंत्र नहीं हूँ, किन्तु उठने के बाद शुभ या शुद्ध परिणाम (अध्यवसाय) करने में तो मैं स्वतन्त्र हूँ। इस स्वातंत्र्य के अधिकार की दृष्टि से मैं शुभ या शुद्ध वीतरागता या आत्म-स्वरूप की विचारणा करने का पुरुषार्थ करूँ ! ऐसा करने से मन में उदित क्रोधादि कषाय स्वतः ही निष्फल हो जायेंगे। वे वहीं रुक जायेंगे। आगे नहीं बढ़ेंगे। कषाय-निरोध का दूसरा उपाय
कषाय-निरोध का दूसरा उपाय है-जो कषायकर्म अभी सत्ता में पड़े हैं, उनका अबाधाकाल पूर्ण होने पर वे उदय (विपाक) में आने वाले हैं। उस विपाकोदय को (उदय में आने से पहले ही) रोक देना।
कर्मसिद्धान्त के अनुसार कषायकर्म दो प्रकार से उदय में आता है(१) विपाकोदय से, और (२) प्रदेशोदय से। विपाकोदय में कर्म का विपाक यानी रस अनुभव (भोगने) में आता है। उदाहरणार्थ-उग्र रस वाले क्रोधमोहनीय कर्म का जब विपाकोदय होता है, तब उसके उग्र रस का अनुभव होता है, अर्थात् मन को उग्र क्रोध का अनुभव होता है, हृदय में उग्र क्रोध का भाव जागता है। इसी तरह लोभादि मोहनीय कर्म का विपाकोदय हो तो लोभ आदि भाव मन में जाग जाते हैं। प्रदेशोदय में सिर्फ कर्म के प्रदेश (कर्म-पुद्गलों का जत्था) आत्मा के साथ श्लिष्ट होकर यों ही शान्त पड़े रहते हैं। जब वे कर्म-प्रदेश उदय में आते हैं, तब रसानुभव हुए बिना भोगे जाते हैं, फिर वे आत्म-सम्बन्ध से पृथक् हो जाते हैं। इसे ही प्रदेशोदय कहते हैं। प्रदेशोदय में केवल कर्मदल का ही उदय है, उसके विपाक या रस का उदय (अनुभव) नहीं है। दिल में क्रोध, मान, लोभ आदि का भाव जाग्रत
१. 'दिव्यदर्शन', दि. ८-९-९० के अंक से भाव ग्रहण, पृ. ११-१२
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