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ॐ अकषाय-संवर : एक सम्प्रेरक चिन्तन 8 ४७ 8
जनायास ही हो सकेगा। संवर-निर्जरारूप धर्माचरण करने वाले को यह तो समझ ही लेना चाहिए कि मुझे क्रोध-मान-माया-लोभादि कषायों से दूर रहकर ही धर्म करना है।
तात्पर्य यह है कि धर्माचरण कषाय-त्याग के लिए ही करना है और अन-वचन-काया की प्रवृत्तियाँ भी अन्तःकरण को कषायों-नोकषायों से यथाशक्य दूर रखते हुए करना है।
शुद्ध धर्म जब आत्मा को सुधारने = शुद्ध रखने के लिए है तो कषायों को बदस्तूर रखने या उन्हें बढ़ाने से यह नहीं हो सकेगा। धर्माचरण करने से पुण्यवृद्धि तो होती है, मगर आत्मा में पुण्यवृद्धि हो, यह आत्म-शुद्धि या आत्मा की सुधार नहीं है। आत्म-शुद्धि है-आहारादि संज्ञाओं और क्रोधादि कषायों की कलुषितता का कम होना। ___ शुद्ध धर्म के फल के रूप में इन्हीं से बचने का ध्यान रखना है। फिर उनका प्रभाव आत्मा पर ऐसा डालना है कि उसके द्वारा किसी भी प्रवृत्ति को करते समय अन्तर में संज्ञाओं और कषाओं का सिंचन या पोषण न हो।
___ अकषाय-संवर की साधना के लिए दो उपाय . अकषाय-संवर के साधक को प्रत्येक कषाय के निरोध के लिए दो तरह से कार्य करना है-(१) अन्तर में उदित हुए कषाय को निष्फल करना, और (२) भविष्य में कोई कषाय उदय में न आये, ऐसा मानस बनाने का काम।
__ अन्तर में उदित कषाय को निष्फल करने का स्पष्टीकरण ___ अन्तर में उदित कषाय को निष्फल करने का आशय यह है कि यदि किसी निमित्त से अन्तर में क्रोध, अहंकार, लोभ या माया आदि कषाय भड़क उठा है, तो उससे तुरन्त सावधान होकर उसके योग्य विचार, वचन या व्यवहार की प्रवृत्ति न करना। इस प्रकार मन में उठे हुए क्रोधादि कषाय को सफल न होने देना।
क्रोध को कैसे सफल कर देता है मानव ? - मान लीजिए-किसी व्यक्ति को सकारण या अकारण किसी पर मन में क्रोध का. ज्वार आया। उसके पश्चात् यदि वह उसे निष्फल न करके मन में ऐसे विचारों की तरंगें उठाता है कि "यह हरामी है, दुष्ट है, शत्रु है, मेरा कितना नुकसान कर दिया इसने? या मुझे इसने बर्बाद कर दिया है; ऐसे व्यक्ति को तो पूरा मजा चखा देना चाहिए; यह हरामखोर क्या समझता है अपने मन में ! सेर पर सवा सेर १. 'दिव्यदर्शन', दि. ८-९-९० के अंक से भाव ग्रहण, पृ. १00
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