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१-अन्तर्दृष्टि नहीं। इसी प्रकार इन्द्रियोंके राज्यमें केवल यह बाह्य जीवन ही सत्य है, आभ्यन्तर जीवन नहीं। परन्तु जिस प्रकार उदधिके भीतर उसके तल भागमें जानेपर रत्नाकर सत्य है, उसी प्रकार इस बाह्यजीवनके भीतर इसके तल-भागमें जानेपर आभ्यन्तर जीवन सत्य है। जिस प्रकार रत्नाकरके हस्तगत हो जानेपर उदधि निर्मूल तथा निःसार हो जाता है, उसी प्रकार आभ्यन्तर-जीवनके हस्तगत हो जानेपर बाह्य-जीवन निमूल्य तथा निःसार हो जाता है। हे प्रभो ! तू एकबार इसमें डुबकी लगा, मैं तुझे विश्वास दिलाता हूँ कि वह इसकी अपेक्षा अधिक सत्य है, इसकी अपेक्षा अधिक स्थायी है, इसकी अपेक्षा अधिक मूल्यवान है। __ वही वास्तवमें तेरे बाह्य-जीवनका प्राण है, उसके अभावमें यह निष्प्राण है। मृत्युके समय इन्द्रियगम्य यह बाह्य-शरीर तो रहता है परन्तु उससे अतीत आभ्यन्तर-जीवन चला जाता है, जिसे जगतके लोग समझ नहीं पाते और व्यक्तिको मृत मानकर रोने लगते हैं । वास्तवमें व्यक्ति नहीं मरा है, शरीर मरा है । मृत्यु केवल निष्प्राण होनेका नाम है। 'चित्त' के नामसे कहा गया तेरा आभ्यन्तर-जीवन ही वास्तवमें इसका प्राण है। व्यक्तिका व्यक्तित्व उसीमें निहित है, शरीरमें नहीं। लोकमें भी प्रसिद्ध है कि शरीरके सुन्दर-असुन्दर होनेसे व्यक्तिका व्यक्तित्व सुन्दर-असुन्दर नहीं होता, चित्तके सुन्दर-असुन्दर होनेसे ही वह सुन्दर-असुन्दर होता है। इसलिए चित्त ही अधिक सत्य है, शरीर नहीं। तेरी सकल परिस्थितियाँ भी वास्तवमें वहाँ ही निवास करती हैं, शरीर में अथवा इसके साधनभूत इस बाह्य-जगतमें नहीं। पुत्र मित्र कलत्रादिमें, घरमें, समाजमें अथवा राष्ट्र या अन्तर्राष्ट्रमें उनका प्रतिभास होता है, परन्तु वह प्रतिभास भ्रान्त है। इस रहस्यको भी तू उसी समय समझ सकेगा जबकि चित्त नामसे कथित इस आभ्यन्तर लोकमें तू प्रवेश करेगा और उसके प्रत्येक प्रान्तमें जा जाकर तू उसका अवलोकन करेगा।
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