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१-अन्तदृष्टि । बन्धन तोड़ डालता, सब बेडियें चकनाचूर कर डालता। परन्तु अन्तर्दृष्टिके बिना इस बन्धनकी भी प्रतीति कैसे हो? बाहरमें तो तू स्वतन्त्र है ही, व्यक्तिकी अपेक्षा भी और राष्ट्रकी अपेक्षा भी; जो चाहे करे, जो चाहे छोड़े, जो चाहे भोगे।
भूलता है प्रभो ! भुलता है, आ गुरुओंकी शरणमें और तब हो पता चलेगा तुझे कि तू स्वतन्त्र है या परतन्त्र । विज्ञानने इतनी उन्नति की, पृथ्वी पर स्वर्ग उतारा, परन्तु क्या वह भी स्वतन्त्र है ? यदि है तो इतना आतंक क्यों, इतनी आशंका क्यों ? देख तनिक भीतर चलकर देख, सभी परिस्थितियों से बँधे हैं, व्यक्ति हो या समाज, देश हो या राष्ट्र, ज्ञान हो या विज्ञान, जो कुछ भी करता है सब परिस्थितिवश । परिस्थिति बाध्य न करे तो कौन इतना संघर्ष करे। सर्वत्र संघर्ष मचा है भीतर भी और बाहर भी, व्यक्तिमें भी, समाजमें भी, राष्ट्रमें भी और सकल विश्वमें भी। यह 'सब कुछ क्यों? बस एक उत्तर है, 'परिस्थितिवश' । न चाहते हुए भी परिस्थितिवश करना पड़ता है, इससे बड़ी दासता और क्या है ?
परन्तु यह 'परिस्थिति' क्या वस्तु है और कहाँ बैठी है, क्या इसका भी विचार किया है कभी ? ऐन्द्रिय-जगतमें विचरण करने वालेके लिये यह सम्भव ही कब है ? उसमें परिस्थितिकी प्रतीति होती है, परन्तु 'परिस्थिति क्या वस्तु है' इस विचारके लिए वहाँ अवकाश नहीं। तब उसकी खोजकी तो बात ही क्या। परिस्थितियोंमें रहते हुए भी परिस्थितिको न देखना, इससे बड़ा अन्धपना क्या ? आ गुरुदेवकी शरणमें। वह ज्ञानाञ्जन के द्वारा तेरा तृतीय नेत्र खोल देंगे, और तभी सम्भव हो सकेगा तेरे लिये उसे देखना, उसे जानना। तब ऋषि बन जायेगा तू, द्रष्टा बन जायेगा त, ज्ञाता बन जायेगा तू । तब तू देखेगा कि इस ऐन्द्रिय-जगतकी अपेक्षा अनन्त गुणा जगत तेरे भीतर बसा हुआ है। चित्तगत इस छोटेसे
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