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१-अन्तर्दृष्टि
"आतमको हित है सुख, सो सुख आकुलता बिन कहिये। आकुलता शिव माहिं न तातें, शिवमग लागो चहिये ॥"
बस यहाँ होता है दर्शनशास्त्रका प्रवेश, अन्तर्दृष्टि सम्पन्न ऋषियोंकी शरण। अन्तर्दृष्टि खुले बिना इस कारिकाका क्या मूल्य ? कौन सुनता है इस व्यर्थ के प्रलापको ? कविजनोंकी कल्पना है। आकाश-पुष्पकी प्राप्ति सम्भवतः हो जाय, परन्तु इस कल्पनाको साकार हुआ न तो आजतक किसीने देखा है और न कभी देखनेकी आशा ही की जा सकती है। और यदि कदाचित् दूर भविष्यमें किसी एक विरले व्यक्तिको काकतालीय न्यायसे उसकी प्राप्ति सम्भव हो भी जाय तो वर्तमानको छोड़कर भावीकी आशा कौन करेगा ?
"आतमको हित है सुख, सो सुख विषय-भोगमें लहिये । विषयभोग धन बिन नहिं तातें, धन ही धन उपजइये ॥"
इस कारिकाके प्रत्यक्ष अर्थको छोड़कर उपर्युक्त कारिकाके काल्पनिक अर्थको हस्तगत करनेका प्रयास जलगत चन्द्रबिम्बको हस्तगत करनेके प्रयाससे अधिक और क्या है ?
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