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मिया नगर की ओर जा रहे थे। उसमे से कुछ मुखिया लोग आचार्यश्री के पास आये और भक्तिपूर्वक वन्दना की। आचार्यश्री ने उनसे मारवाड़ी भाषा मे बातचीत आरम्भ की तो सहज ही उनमे आत्मीयता-सी पैदा हो गई। मातृभूमि का सम्पर्क पाकर एक बार उनकी चेतना सप्राण हो गई। ___ आचार्यश्री ने पूछा-क्यो भाइयो? तुम अभी इधर क्यो आ गए हो ? बस इतने मे तो उनके बधन खुल पडे । मानो घाव पर अगुली लग गई हो। सकरुण शब्दो मे वे अपनी आत्म-कथा सुनाने लगे। कहने लगे-महाराज ! यह कहानी सुनाने के लिए ही तो हम आपके पास आये हैं । सचमुच प्राज हम चारो ओर से असहाय है । प्रकृति के प्रकोप के कारण दो-तीन वर्षों से लगातार हमारे गाँव मे अकाल पड रहा है । जो अन्न पास मे था वह खा चुके । अब प्राणो के लाले पड़ने लगे तो हम लोगो को प्राणो से भी प्यारी मातृभूमि को छोडकर इधर आना पड़ रहा है । सोचते हैं इधर कुछ काम-काज मिल जायगा जिससे अपने गुजरबसर कर दिन काट देंगे। फिर जब अच्छे दिन आएगे तो पुन. अपने गाँव की ओर लौट आएगे। हमारा गाँव मारवाड (जोधपुर डिवीजन) मे है। हम सभी पाँच-चार सौ व्यक्ति जिनमे राजपूत किसान आदि सभी जातियो के लोग हैं, इधर कानपुर मे पद्मपतजी के पास भी गए थे। उन्होने हमारे कुछ साथियो को अपनी मिल मे रख लिया। शेष लोग डालमियानगर की ओर जा रहे हैं। वहाँ कुछ काम मिलने की सभावना है। __ आचार्यश्री ने उन्हे अपना सन्देश देते हुए कहा-"मनुष्य पर विपत्तियाँ तो आती ही रहती है। सच्चा मनुष्य वही है जो उनसे विचलित नहीं होता। यह तो परीक्षा का समय होता है । यदि मनुष्य अपने पौरुष पर विश्वास रखे तो आपत्तियां अपने आप दूर हो जाती हैं । अत. तुम्हे