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साहित्य और समाज हिन्दी साहित्यमें अब जो नई शक्तियाँ आ रही है, उनमे बहुभागको सामाजिक मान्यता प्राप्त नहीं है। कुछ, काल पहले तक हमारा साहित्य उच्च-वर्गीय था। उसके उत्पादक समाजके प्रतिष्ठाप्राप्त व्यक्ति थे । अब अधिकांश ऐसा नहीं रह गया है। जिनको समाजमें पैर टेकनेको कोई ठीक ठौर नहीं है, वे लोग भी आज लिखते है। इससे प्रश्न होता है कि समाजकी और साहित्यकी परस्पर क्या अपेक्षा है ? क्या सम्बन्ध है ?
साहित्य अब अधिकाधिक व्यक्तिगत होता जा रहा है । पहले वह अपेक्षाकृत समाजगत था । समाजकी नीति-अनीतिकी मान्यताओंकी ज्योकी त्यों स्वीकृति साहित्यमें प्रतिविम्वित दीखती थी। अब उसी साहित्यमें समाजकी उन स्वीकृत और निर्णीत धारणाओंके प्रति व्यक्तिका विरोध और विद्रोह अधिक दिखाई पड़ता है । अतः, यह कहा जा सकता है कि साहित्य यदि पहले दर्पणके तौरपर सामाजिक अवस्थाओंको अपनेमे विम्ब-प्रतिविम्ब-भावसे धारण करनेवाली वस्तु थी तो अब वह कुछ ऐसी वस्तु है जो समाजको प्रतिविम्बित तो करे, पर चाटुतासे अधिक उसे चोट दे, और इस भाँति समाजको आगे बढ़ानेका काम भी करे । साहित्य अत्र, प्रेरक भी है । वह ला देता ही नहीं, अब वह कराता भी है । हमारी. वीती ही उसमें नहीं है, हमारे संकल्प और हमारे मनोरथ भी आज, उसमें भरे हैं।